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________________ तृतीय अध्याय श्वेताम्बर साहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा प्रथम प्रकरण अचेलत्व के दिगम्बरमान्य स्वरूप का वर्णन पूर्व अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि दिगम्बरजैनमत की स्थापना न तो बोटिक शिवभूति जैसे साधारण पुरुष ने ई० सन् ८२ में की थी, न ही आचार्य कुन्दकुन्द ने विक्रम की छठी शताब्दी में। वह ऋषभादि तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत है । इसकी पुष्टि श्वेताम्बरसाहित्य में उपलब्ध उल्लेखों से भी होती है। प्रस्तुत अध्याय में उन्हीं का निरूपण किया जा रहा है । Jain Education International १ श्वेताम्बर साहित्य में अचेलपरम्परा की स्मृतियों के अवशेष जैसा कि श्वेताम्बरसम्प्रदाय के नाम से ही स्पष्ट है, उसका जन्म सचेलमुक्ति की मान्यता को लेकर हुआ था । फिर भी श्वेताम्बर -ग्रन्थों में तीर्थंकरों को नग्नमुद्राधारी माना गया है, जिनकल्पिक नाम से साधुओं के एक वर्ग भी नाग्न्यलिंगधारी स्वीकार किया गया है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों को अचेलकधर्म का उपदेशक तथा शेष बाईस तीर्थंकरों को सचेलधर्म के साथ अचेलधर्म का उपदेष्टा बतलाया गया है, आचारांग और स्थानांग में अचेलत्व की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है, कल्पनिर्युक्ति में साधु के दस कल्पों (आचारों) में आचेलक्य को प्रथम कल्प प्ररूपित किया गया है और तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरीय पाठ (९ / ९) में मुनियों को नाग्न्यपरीषह होने की संभावना से इनकार न कर उनको नग्नवेशधारी भी स्वीकार किया गया है। भले ही आगे चलकर जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद जिनकल्प का व्युच्छेद बतलाकर अचेलकधर्म को विलुप्त घोषित कर दिया गया और तीर्थंकर ऋषभदेव एवं महावीर के द्वारा उपदिष्ट अचेलकधर्म को सचेलधर्म सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया । श्वेताम्बराचार्य चाहते तो आरंभ में ही अपने सम्प्रदाय के शास्त्रों में नग्नत्व और अचेलत्व का नाम भी न आने देते, सभी तीर्थंकरों और मुनियों को वस्त्रधारी ही दर्शाते । किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया और अपने ग्रन्थों में भगवान् ऋषभदेव और महावीर द्वारा केवल अचेलकधर्म का उपदेश दिये जाने का उल्लेख किया और उनकी परम्परा में मुनियों के नाग्न्यलिंगधारी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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