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________________ १५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०६ __इसके अतिरिक्त 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम उनके सम्प्रदाय के लिए उपयुक्त भी नहीं था, क्योंकि 'निर्ग्रन्थ' शब्द के साथ अचेलत्व के ही संयमसाधक होने का अर्थ जुड़ा हुआ था, जब कि उन्हें यह प्रचार करना था कि वस्त्रधारण करने से ही मोक्षमार्गभूत संयम की साधना हो सकती है, इसी कारण स्त्रीमुक्ति भी संभव है। इस उद्देश्य से उनके लिए अपने संघ का नाम 'श्वेतपट' रखना अत्यन्त उपयोगी प्रतीत हुआ। यह नाम उनकी मान्यताओं का विज्ञापक था। इस प्रयोजन से उन सवस्त्र जैन साधुओं ने भगवान् महावीर को भी कन्धे पर एक वस्त्र डालकर प्रव्रजित होते हुए अपने शास्त्रों में वर्णित किया है। इस महान् उद्देश्य की सिद्धि के लिए श्वेताम्बर साधुओं ने अपने संघ का नाम श्वेतपटसंघ रखा। इसी नाम से उसे लोक में प्रचारित किया और राजाओं से उसे मान्यता दिलायी, जिससे उन्हें 'निर्ग्रन्थश्रमणसंघ', 'यापनीयसंघ' आदि से अलग ग्राम आदि का दान प्राप्त हो सका। इस प्रकार श्वेताम्बराचार्यों ने अपने संघ के लिए 'श्वेतपटसंघ' नाम स्वयं प्रचारित किया था, जो इस बात का प्रमाण है कि अपने आगमों में साधु के लिए निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग करते हुए भी उन्होंने अपने संघ को निर्ग्रन्थसंघ नाम से प्रसिद्ध नहीं किया, क्योंकि एक तो यह नाम पहले से ही अचेल-जैनश्रमणों के संघ के लिए प्रसिद्ध था, दूसरे इससे अचेलत्व का भी बोध होने से अचेलत्व भी संयम का साधक सिद्ध होता था, जो उनकी सैद्धान्तिक विशेषता के प्रतिकूल था। अतः उसका प्रयोग उनके शास्त्रों तक ही सीमित रह गया। यदि 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम पहले से ही अचेल-जैनश्रमणसंघ के लिए लोकप्रसिद्ध न होता, तो सचेल-जैनश्रमणों को अपने संघ के लिए इस नाम का प्रयोग करने से कोई नहीं रोक सकता था। तब इस नाम के साथ अचेलत्व के ही संयमसाधक होने का अर्थ भी न जुड़ा होता, अतः इस दृष्टि से भी उन्हें इस नाम के प्रयोग मे बाधा नहीं होती। किन्तु ये दोनों ही अनुकूलताएँ नहीं थीं, इस कारण वे अपने संघ के लिए 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम का प्रयोग नहीं कर सके। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इतिहास में दिगम्बरसंघ (मूलसंघ) ही निर्ग्रन्थसंघ नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ था और चूँकि 'निर्ग्रन्थ' नाम 'श्वेतपट' नाम से पूर्ववर्ती है, इसलिए निर्ग्रन्थसंघ श्वेतपटसंघ से प्राचीन है। केवल दिगम्बरसंघ का 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम श्वेताम्बरों को भी मान्य एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि कदम्बवंशीय राजा श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के ताम्रपत्रलेख में निर्ग्रन्थसंघ और श्वेतपटसंघ, दोनों को इन्हीं नामों से एक ही साथ, एक ही स्थान में, एक ही ग्राम को विभाजित कर दान में दिये जाने का वर्णन है। इससे यह सत्य प्रकट होता है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर एक ही स्थान में साथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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