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________________ अ०२/प्र०६ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १४९ श्वेतपटसंघ किया और इसी नाम से वह लोकप्रसिद्ध हुआ। सचेल-निर्ग्रन्थसंघ के नाम से इतिहास में कहीं भी उसका उल्लेख नहीं है। सम्प्रदायों के नाम कोई गोपनीय तत्त्व नहीं होते। वे रखे ही इसलिए जाते हैं कि उन नामों से वे सम्प्रदाय प्रसिद्ध हों, वे लोगों की जिह्वा पर चढ़ जायें। लेकिन 'सचेल-निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय' नाम के किसी सम्प्रदाय से लोग परिचित ही नहीं थे, न ही 'वस्त्रधारी को निर्ग्रन्थ कहते हैं,' ऐसा उन्होंने कहीं पढ़ा, सुना या देखा था। शिलालेख और विभिन्न सम्प्रदायों के साहित्य इसके प्रमाण हैं। इसलिए डॉ० सागरमल जी की यह मान्यता अत्यन्त अप्रामाणिक एवं अयुक्तिमत् सिद्ध होती है कि स्थूलभद्र की परम्परा से विकसित सचेल-श्रमणसंघ 'सेचल-निर्ग्रन्थसंघ' कहलाता था। ६ स्वसंघ के लिए 'श्वेतपटसंघ' नाम प्रचारित पाँचवीं शती ई० के कदम्बनरेश श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के ताम्रपत्रलेख में सचेलजैनश्रमणों का उल्लेख श्वेतपटमहाश्रमणसंघ नाम से हुआ है। इससे सिद्ध है कि उनके संघ का प्रामाणिक, राजमान्य और लोकप्रसिद्ध नाम शुरू से यही था और यह नामकरण स्वयं सचेल-जैनश्रमणों ने किया था तथा उनकी ही इच्छा से यह लोकप्रसिद्ध हुआ था। सचेल-जैनश्रमणों अर्थात् श्वेताम्बरों की इच्छा और प्रयत्न के बिना उनके संघ का यह नाम प्रसिद्ध होना असंभव था। विचारणीय है कि श्वेताम्बर साधुओं ने अपने शास्त्रों में स्वयं को 'निर्ग्रन्थ' लिखा है, तथापि अपने संघ को श्वेतपट (श्वेतवस्त्र, सिताम्बर) नाम से प्रसिद्ध किया है। इसका कारण क्या था? यदि वे निर्ग्रन्थ थे, तो अपने संघ के लिए यही नाम प्रचारित क्यों नहीं किया? जिस दिगम्बरसंघ को उन्होंने ईसा की प्रथम शताब्दी या विक्रम की छठी शती में उत्पन्न माना है, उसे 'निर्ग्रन्थ' नाम का प्रयोग क्यों करने दिया गया? जब हम इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं, तब निम्नलिखित तथ्य सामने आते हैं श्वेतपटसंघ के उदय से पूर्व सभी जैनमुनि अचेल होते थे। अतः निर्ग्रन्थ शब्द जैनमुनि का पर्यायवाची था। इसलिए जब उन अचेल जैनमुनियों के निर्ग्रन्थसंघ से श्वेतवस्त्रधारी मुनियों के संघ का उदय हुआ, तब उन्होंने अपने मुनि-सम्बोधन हेतु 'निर्ग्रन्थ' शब्द का प्रयोग प्रचलित रखा। किन्तु यह प्रयोग उनके शास्त्रों के भीतर ही प्रचलित रहा, इस नाम से अपने सम्प्रदाय को लोकप्रसिद्ध करना उनके लिए संभव नहीं हुआ, क्योंकि 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम पहले से ही अचेल-जैनश्रमणों के संघ के लिए लोकप्रसिद्ध था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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