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१४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०६ प्रारंभ किया गया है। मथुरा के अभिलेखों में, जो लगभग ईसा की प्रथम शताब्दी या उसके कुछ पूर्व के हैं, वर्धमान को नमस्कार करते समय उनके साथ 'जिन' या 'तीर्थंकर' विशेषण न जोड़कर 'अर्हत्' विशेषण जोड़ा गया है। जैसे, नमो अरहतो वधमानस्य (जै.शि.सं. /मा.च./भाग २/लेख क्र.८)। 'जिनपूजा' के स्थान में अरहतपूजा शब्द प्रयुक्त किया गया है। (वही / लेख क्र.१० एवं १५)। इसी प्रकार निम्नलिखित अर्थों को प्रकट करने के लिए भी 'अर्हत्' शब्द का ही प्रयोग हुआ है-अर्हदायतन= जिनमंदिर (वही/लेख क्र.९०), आर्हतायतन = जिनालय (वही/ले.क्र.९४), अर्हच्छाला = जिनमंदिर (वही / ले.क्र.९८), अर्हत्प्रोक्तसद्धर्म = जिनोपदिष्ट समीचीन धर्म (वही / ले. क्र.९८) परमाईतदेव (वही/ले.क्र.९७), परम अर्हद्भक्त (ले.क्र.१०२), महावीर अर्हत (वही/ले.क्र.१०६)। ई० सन् ३०० से ४०० के बीच रचित वैदिकपरम्परा के विष्णुपुराण में जैनों को आर्हत शब्द से वर्णित किया गया है। (देखिये, अध्याय ४/प्र.१ / शी.१०.२)।
षड्दर्शनसमुच्चय की ५८वीं कारिका की वृत्ति में गुणरत्नसूरि ने जैनदर्शन के विषय में परपक्ष के आक्षेप को उठाते हुए परपक्ष के द्वारा जैनों को आहत शब्द से सम्बोधित कराया है। यथा
"अत्र परे प्राहुः-अहो आर्हताः! अर्हदभिहिततत्त्वानुरागिभिर्युष्माभिरिदमसम्बद्धमेवाविर्भावयांम्बभूवेयदुत युष्मदर्शनेष्वपि पूर्वापरयोर्विरोधोऽस्तीति।---" (पृ.३९३ / अनुच्छेद ४२०)।
गुणरत्नसूरि के ये वचन इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि जैनेतरों में जैन लोग बहुत प्राचीन काल से आहत नाम से जाने जाते थे।
निष्कर्ष यह कि प्राचीन काल में जैनसम्प्रदाय निर्ग्रन्थ एवं आर्हत इन दो नामों से लोक विख्यात था। निर्ग्रन्थ नाम अचेललिंगाश्रित है और आर्हत नाम अरहन्त-देवता के नाम तथा उनके द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्तों पर आश्रित है। तीर्थंकर महावीर के समय में आर्हतसम्प्रदाय में केवल निर्ग्रन्थ (अचेल) मुनि ही होते थे। किन्तु जब जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद कुछ मुनि सचेल हो गये तब सचेलमुनिसंघ निर्ग्रन्थसंघ नहीं कहला सकता था, क्योंकि 'निर्ग्रन्थ' नाम अचेललिंग पर आश्रित था। इसके अतिरिक्त उन्हें अपने जैन या आर्हत होने की पहचान कराने के लिए 'निर्ग्रन्थ' नाम अपनाने की आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि उनकी उक्त पहचान 'आर्हत' नाम से हो ही रही थी, वह इसलिए कि वे उसी सम्प्रदाय में आविर्भूत हुए थे और उसी के देवता और तत्त्वों के (कुछ भेद के साथ) अनुयायी थे। हाँ, इस नाम से लोगों को उनके सचेललिंगाश्रित उपसम्प्रदाय का बोध होना संभव नहीं था। अतः उन्होंने उसका बोध कराने के लिए सचेललिंग के आधार पर अपने लिंगाश्रित उपसम्प्रदाय का नामकरण
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