SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०२/प्र०६ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १४७ जैनदर्शन के देवताश्रित नाम की व्याख्या करते हुए उक्त कारिका के वृत्तिकार श्री गुणरत्नसूरि लिखते हैं "जिना ऋषभादयश्चतुर्विंशतिरहन्तस्तेषामिदं दर्शनं जैनम्। एतेन चतुर्विंशतेरपि जिनानामेकमेव दर्शनमजनिष्ट, न पुनस्तेषां मिथो मतभेदः कोऽप्यासीदित्यावेदितं भवति।" अनुवाद-"ऋषभ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस अरहन्त (तीर्थंकर) जिन कहलाते हैं। उनके दर्शन को जैनदर्शन कहते हैं। इससे यह सूचित होता है कि चौबीसों जिनों का एक ही दर्शन था, उनमें परस्पर कोई मतभेद नहीं था।" हरिभद्रसूरि ने निम्नलिखित कारिका में जैनदर्शन नाम को जिनेन्द्र देवता पर आश्रित बतलाया है-"जिनेन्द्रो देवता तत्र रागद्वेषविवर्जितः---।" (षड्दर्शनसमुच्चय/ कारिका ४५)। इसी प्रकार जैन ('जोण्हकहियतच्चेसु'-नि.सा. /गा.१३९, लिंगं--- जेण्हं-प्र.सा. / ३/६) जिनमत ('जिणमदम्हि'-प्र.सा. /३/१२), जैनोपदेश ('जोण्हमुवदेसं-प्र.सा. १/८८) वीरशासन (सासणं हि वीरस्स-प्र.सा./२/१४), ये देवताश्रित सम्प्रदाय-बोधक नाम ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में मिलते हैं। ईसा की तृतीय शती के आचार्य समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड-श्रावकाचार में उपलब्ध जिनशासन ('शासति जिनशासने विशदाः'-श्लोक ७८) शब्द भी ऐसा ही सम्प्रदायसूचक नाम है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (१०वीं शती ई० का उत्तरार्ध) द्वारा रचित गोम्मटसार-कर्ममण्ड में देवताश्रित सम्प्रदाय-बोधक जैन नाम प्रयुक्त हुआ है-'जइणाणं पुण वयणं---।' (गाथा ८९५)। किन्तु 'जैन' शब्द से भी अधिक पुराना और बहुप्रचलित जैनसम्प्रदाय-सूचक नाम आर्हत है, जो देवता और तत्त्व पर आश्रित है। संस्कृत के सुप्रसिद्ध गद्यकवि वाणभट्ट ने 'हर्षचरित' (उच्छ्वास ८/पृ.४२२-२३) में आर्हत शब्द से जैनों का उल्लेख किया है। उसके टीकाकार शङ्कर कवि ने आर्हत शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है-"अर्हन्देवता येषां ते आर्हताः।" अर्थात् जिनके देवता अरहन्त होते हैं, वे आहेत कहलाते हैं। 'अर्हत्' शब्द 'जिन' या तीर्थंकर का पर्यायवाची है। जैनपरम्परा में 'अर्हत्' शब्द शुरू से ही 'जिन' शब्द से भी अधिक लोकप्रिय रहा है। जिनमत के प्राणभूत णमोकार महामन्त्र में तीर्थंकर को नमस्कार करने के लिए 'तीर्थंकर' या 'जिन' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, अपितु 'अर्हत्' शब्द का प्रयोग किया गया है। यथाणमो अरहन्ताणं। ईसापूर्व द्वितीय शती के सम्राट् खारवेल के हाथीगुम्फाभिलेख में भी 'अर्हत्' शब्द का प्रयोग करके ही 'नमो अरहंतानं' वाक्य द्वारा मंगलाचरण का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy