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________________ १४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०६ कराने के लिए स्वयं को 'श्वेतपटश्रमणसंघ' नाम से प्रसिद्ध किया। तब इस नाम से सचेल-जैनसंघ जैनसम्प्रदाय के एक उपसम्प्रदाय के रूप में जाना जाने लगा। अपने लिए इस नये नाम का प्रयोग ही सिद्ध करता है कि सचेल-जैनश्रमणों के संघ के लिए 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम उपयुक्त नहीं था। इसी प्रकार आगे चलकर उत्पन्न हुए यापनीय और कूर्चक संघों के लिए 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम उचित नहीं था, इसीलिए इन. संघों ने अपने लिए ये विशिष्ट नाम चुनें। इस प्रकार जैनसम्प्रदाय में विभिन्न उपसम्प्रदाय उत्पन्न हो जाने पर निर्ग्रन्थसंघ भी महाजैनसम्प्रदाय का एक उपसम्प्रदाय बन गया और वह जैनसम्प्रदाय का सामान्य नाम नहीं रहा। जैसे 'निर्ग्रन्थसंघ' शब्द से यापनीयसंघ का बोध नहीं हो सकता था, कूर्चकसंघ का बोध नहीं हो सकता था, वैसे ही सचेल-जैनश्रमणसंघ अर्थात श्वेतपटश्रमणसंघ का भी बोध नहीं हो सकता था। इसी कारण सचेल-जैनश्रमणसंघ ने अपने विशिष्टरूप का बोध कराने हेतु स्वयं के लिए 'श्वेतपटश्रमणसंघ' नाम चुना। अतः डॉ० सागरमल जी द्वारा स्थूलभद्र की परम्परा से विकसित सचेल-श्रमणसंघ को 'सचेल-निर्ग्रन्थसंघ' नाम से अभिहित किया जाना युक्तिविरुद्ध, इतिहास-विरुद्ध एवं 'श्वेतपटसंघ' नामकरण करनेवाले प्राचीन श्वेताम्बराचार्यों के विरुद्ध है। सम्प्रदायों के नामकरण के आधार : लिंग, देवता एवं तत्त्व सम्प्रदायों का नामकरण दो आधारों पर हुआ है-१. मुनिलिंग एवं २.देवता और तत्त्व। निर्ग्रन्थ, श्वेतपट, कूर्चक, रक्तपट (बौद्धसाधु) आदि सम्प्रदाय-बोधक नाम मुनिलिंग के आधार पर प्रचलित हुए हैं। और जैनदर्शन-बौद्धदर्शन, जैनधर्म-बौद्धधर्म, जिनमतबौद्धमत, जैनसम्पद्राय-बौद्धसम्प्रदाय आदि नाम देवता (धर्म-दर्शन के प्रणेता आप्तपुरुष) एवं तत्त्वों (सिद्धान्तों) पर आधारित हैं, जैसा कि श्वेताम्बराचार्य श्री हरिभद्र-सूरि (७५० ई० अनुमानित) ने षड्दर्शनसम्मुचय में बतलाया है दर्शनानि षडेवात्र, मूलभेदव्यपेक्षया। देवतातत्त्वभेदेन ज्ञातव्यानि मनीषिभिः॥ २॥ अनुवाद-"चूँकि देवता और तत्त्वों के भेद की अपेक्षा मूलदर्शन छह ही हैं, अतः ये ही छह मूलदर्शन इस ग्रन्थ (षड्दर्शनसमुच्चय) में विद्वज्जनों द्वारा ज्ञातव्य हैं।" उन छह मूल दर्शनों के नाम इस प्रकार हैं बौद्धं नैयायिकं सांख्यं जैनं वैशेषिकं तथा। जैमिनीयं च नामानि दर्शनानाममून्यहो॥ ३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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