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________________ १४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०६ रहा है। अतः श्वेताम्बर मुनियों के द्वारा अपने लिए इस शब्द का प्रयोग किया जाना न्यायोचित नहीं है। यह न केवल सैद्धान्तिक भ्रम उत्पन्न करने की चेष्टा है, अपितु दिगम्बर मुनियों की ऐतिहासिक पहचान मिटाने का भी प्रयास है। ___'भगवती-आराधना' के टीकाकार श्री अपराजितसूरि ने इस चेष्टा पर बड़ी चुभती टिप्पणी की है। वे लिखते हैं "चेलपरिवेष्टिताङ्ग आत्मानं निर्ग्रन्थं यो वदेत्तस्य किमपरे पाषण्डिनो न निर्ग्रन्थाः? वयमेव, न ते निर्ग्रन्था इति वाड्मानं नाद्रियते मध्यस्थैः।" (वि.टी/भ. आ. / गा. 'आचेलक्कुद्देसिय' ४२३ /पृ.३२३)। अनुवाद-"जो वस्त्रधारण करते हुए भी अपने को निर्ग्रन्थ कहता है, उसके अनुसार क्या अन्य सम्प्रदाय के साधु निर्ग्रन्थ सिद्ध नहीं होते? अवश्य होते हैं। हम ही निर्ग्रन्थ हैं, वे नहीं, यह तो कथनमात्र है। मध्यस्थपुरुष इसे स्वीकार नहीं करते। तात्पर्य यह कि वस्त्रधारी को निर्ग्रन्थ कहने से सभी वस्त्रधारी निर्ग्रन्थ कहलाने लगेंगे, तब सग्रन्थ और निर्ग्रन्थ के भेद का कोई आधार ही नहीं रहेगा। अतः सग्रन्थ और निर्ग्रन्थ के भेद का बाह्य आधार वस्त्रधारण करना और न करना (सर्वथा नग्न रहना) ही है। सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपादस्वामी ने सग्रन्थ होते हुए भी अपने को निर्ग्रन्थ कहनेवालों को विपरीत-मिथ्यादृष्टि कहा है-"सग्रन्थो निर्ग्रन्थः, केवली कवलाहारी, स्त्री सिध्यतीत्येवमादिः विपर्ययः" (८/१)। ३ डॉ० सागरमल जी के मत में परिवर्तन ईसापूर्व चतुर्थ शती से दिगम्बरसंघ ही 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम से प्रसिद्ध पूर्व (प्रकरण ३ / शीर्षक ५) में डॉ० सागरमल जी के वे नवीन वचन उद्धृत किये गये हैं, जिनमें उन्होंने अपनी मान्यता में परिवर्तन कर यह मान लिया है कि तीर्थंकर महावीर का निर्ग्रन्थसंघ सर्वथा अचेल था। इस तरह यह सिद्ध हो जाता है कि महावीर के समय से जो अचेल श्रमणसंघ निर्ग्रन्थसंघ के नाम से प्रसिद्ध चला आ रहा था, वही वर्तमान में दिगम्बरसंघ के नाम से जाना जाता है। पूर्व (इसी प्रकरण के शीर्षक २) में डॉक्टर सा० के वे वचन भी उद्धृत किये गये हैं, जिनमें उन्होंने यह स्वीकार किया है कि ईसापूर्व तीसरी शती में१०२ भद्रबाहु (प्रथम) की १०२. ईसापूर्व चौथी शती कहना चाहिए था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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