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अ०२ / प्र० ६
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १४३
पहाड़पुर (जिला राजशाही, बंगाल) से प्राप्त एक लेख से मालूम होती है। पञ्चस्तूपान्वय का सेनान्वय के रूप में सर्वप्रथम उल्लेख गुणभद्र ने, संभव है अपने गुरुओं के सेनान्त नाम को देखते हुए किया है । " ( प्रस्तावना / पृ.४३ - ४४ / जै.शि.सं. / मा.च / भा. ३ ) ।
पञ्चस्तूपनिकाय के साथ भी 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक छल करने की कोशिश की है। वे लिखते हैं- "पहाड़पुर (बंगाल) के एक अभिलेख में काशी के पंचस्तूपान्वय का उल्लेख हुआ है । यह संभावना की जा सकती है कि उत्तरभारत में अपने प्रारंभिककाल में यापनीय परम्परा अपने को आर्यकुलभद्रान्वय और पंचस्तूपान्वय के नाम से अभिहित करती हो ।” (पृ.२०-२१ ) ।
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यह दिन के उजाले के समान स्पष्ट है कि धवलाकार वीरसेन और उनके शिष्य जिनसेन जैसे कट्टर दिगम्बराचार्यों ने अपने को पंचस्तूपान्वय का कहा है, तथा उपर्युक्त अभिलेख में गुहनन्दी के साथ 'निर्ग्रन्थ' विशेषण का प्रयोग हुआ है, जो उन्हें स्पष्टतः यापनीयों से भिन्न दिगम्बरपरम्परा का सिद्ध करता है, जिसके गवाह श्रीविजयशिवमृगेशवर्मन् और मृगेशवर्मन् के पूर्वोक्त अभिलेख हैं । इन प्रमाणों से सिद्ध है कि पंचस्तूपान्वय दिगम्बरपरम्परा का अन्वय था । फिर भी उक्त ग्रन्थलेखक ने यह संशय उत्पन्न करने की चेष्टा की है कि हो सकता है पंचस्तूपान्वय यापनीयपरम्परा का पूर्वनाम हो । यह प्रमाणों को ताक पर रख, जिज्ञासुओं की आँखों में संभावनाओं और अटकलों की धूल झौंककर दिगम्बरपरम्परा को बलात् अर्वाचीन सिद्ध करने का छलपूर्ण प्रयास है।
ये अभिलेख इस बात के प्रमाण हैं कि ईसा की पाँचवीं शती तक 'निर्ग्रन्थ' शब्द सर्वथा अचेल (नग्न) रहनेवाले दिगम्बरजैन मुनियों के लिए ही प्रसिद्ध था, अतः अशोक के स्तम्भाभिलेख में उल्लिखित 'निर्ग्रन्थ' शब्द दिगम्बरजैन मुनियों का ही वाचक है।
इन अभिलेखों से एक बात और स्पष्ट होती है कि पाँचवीं शती ई० तक श्वेताम्बरों के लिए 'श्वेतपट' शब्द तो प्रचलित था, किन्तु दिगम्बरों के लिए 'दिगम्बर' शब्द प्रचलित नहीं हुआ था। वे 'निर्ग्रन्थ' शब्द से ही जाने जाते थे। इससे सिद्ध होता है कि दिगम्बर- परम्परा ही भगवान् महावीर द्वारा प्रणीत मूल परम्परा है, इसलिए 'मूलसंघ' शब्द भी उसी का नामान्तर है। सर एम० मोनियर विलिअम्स की संस्कृतइंग्लिश डिक्शनरी में भी निर्ग्रन्थ शब्द का अर्थ a naked Jaina mendicant (नग्न जैन साधु) दिया गया है ।
इन साहित्यिक, शब्दकोशीय और अभिलेखीय प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि 'निर्ग्रन्थ' शब्द भगवान् महावीर के समय से ही दिगम्बर जैन मुनियों की पहचान
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