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१४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०६ हैं। अतः सिद्ध है कि निर्ग्रन्थ शब्द दिगम्बरजैन मुनियों के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। यह बात डॉ० सागरमल जी ने भी स्वीकार की है। वे लिखते हैं
"दक्षिण भारत के देवगिरि और हल्सी के अभिलेखों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ईसा की पाँचवी शती के उत्तरार्ध में दक्षिणभारत में निर्ग्रन्थ, यापनीय, कूर्चक और श्वेतपटमहाश्रमणसंघ का अस्तित्व था। दक्षिणभारत का यह निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ भद्रबाहु (प्रथम) की परम्परा के उन अचेल श्रमणों का संघ था, जो ईसापूर्व की तीसरी शती में बिहार से उड़ीसा के रास्ते लंका और तमिलप्रदेश में पहुँचे थे। उस समय उत्तर भारत में जैनसंघ इसी नाम से जाना जाता था और उसमें गण, शाखा का विभाजन नहीं हुआ था, अतः ये श्रमण भी अपने को इसी 'निर्ग्रन्थ' नाम से अभिहित करते रहे।---यह निर्ग्रन्थसंघ, यापनीय, कूर्चक और श्वेतपटसंघ से पृथक् था, यह तथ्य भी हल्सी और देवगिरि के अभिलेखों से सिद्ध है, क्योंकि इनमें उसे इनसे पृथक् दिखलाया गया है और तब तक इसका 'निर्ग्रन्थसंघ' नाम सुप्रचलित था।" (डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ / १९९८ ई० / पृष्ठ ६३२)।
ईसा की पाँचवीं शताब्दी (४७९ ई०) में ही उत्कीर्ण पहाड़पुर ताम्रपत्र में पंचस्तूपनिकाय के श्रमणों को निर्ग्रन्थ कहा गया है
"काशिक-पञ्चस्तूपनिकायिक-निर्ग्रन्थश्रमणाचार्य-गुहनन्दिशिष्य-प्रशिष्याधिष्ठितविहारे भगवतामर्हतां गन्ध-धूप-सुमनोदीपाद्यर्थन्तलवटकनिमित्तं च अ (त) एव वटगोहालीतो---।" ( पहाड़पुर - ताम्रपत्र लेख / क्र.१९ / जै.शि.सं./ भा.जा./ भा.४)।
इस अभिलेख का सारांश बतलाते हुए डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर लिखते हैं"यह ताम्रपत्र गुप्तवर्ष १५९ के माघमास के ७ वें दिन लिखा गया था। ब्राह्मण नाथशर्मा तथा उसकी पत्नी रामी ने पुण्ड्रवर्धन के राजकोष में तीन दीनार देकर डेढ़ कुल्यवाप जमीन प्राप्त की।--- काशी के पञ्चस्तूपनिकाय के निर्ग्रन्थ श्रमणों के आचार्य गुहनन्दी के शिष्य-प्रशिष्यों का एक विहार वटगोहाली में था। वहाँ भगवान् अर्हत् की पूजा के लिए गन्ध, धूप, फूल, दीप आदि की व्यवस्था के लिए यह जमीन नाथशर्मा तथा रामी ने दान दी।" (जै.शि.सं./ भा.जा./ भा.४ / पृ.९)।
इस पञ्चस्तूपनिकाय में धवलाटीकाकार वीरसेनस्वामी और उनके शिष्य जिनसेन हुए थे। इसका परिचय देते हुए डॉ० गुलाबचद्र जी चौधरी ने लिखा है-"नवमी शताब्दी के उत्तरार्ध में (सन् ८९८ के पहले) उत्तरपुराण के रचयिता गुणभद्र ने अपने गुरु जिनसेन और दादागुरु वीरसेन को सेनान्वय का कहा है। पर जिनसेन और वीरसेन ने जयधवला ओर धवलाटीका में अपने वंश को पंचस्तूपान्वय लिखा है। यह पंचस्तूपान्वय ईसा की पाँचवीं शताब्दी में निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के साधुओं का एक संघ था, यह बात
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