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अ०२/प्र०६
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १४१ कटे इमे वियापटा होहंति।" (दिल्ली / टोपरा / स्तम्भलेख/ क्र.१/ जै.शि.सं./ मा.च./
भा.२)।१००
यहाँ 'निगंठ' शब्द से 'दिगम्बरजैन मुनि' अर्थ ही अभिप्रेत है, यह पाँचवीं शती ई० (४७०-४९० ई०)१०१ के कदम्बवंशीय राजाओं, श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा एवं मृगेशवर्मा के निम्नलिखित अभिलेखों से प्रमाणित है। यथा
१. "धर्ममहाराजः कदम्बानां श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा कालवङ्गग्रामं त्रिधा विभज्य दत्तवान्। अत्र पूर्वमर्हच्छालापरमपुष्कलस्थाननिवासिभ्यः भगवदर्हन्महाजिनेन्द्रदेवताभ्यः एको भागः, द्वितीयोर्हत्प्रोक्तसद्धर्मकरणपरस्य श्वेतपटमहाश्रमणसङ्घोपभोगाय, तृतीयो निर्ग्रन्थमहाश्रमणसङ्घोपभोगायेति।" (देवगिरि-ताम्रपत्रलेख / क्र.९८ । जै.शि.सं./ मा. च./ भा. २)।
अनुवाद-"कदम्बवंशीय धर्ममहाराज श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा ने कालवङ्ग नामक ग्राम तीन भागों में विभक्त कर दान किया। सर्वप्रथम उसका एक भाग अर्हत्-शाला के परमपुष्कल-स्थान में विराजित भगवान्-अर्हत्-महाजिनेन्द्रदेव के लिए दिया, दूसरा भाग अरहन्त द्वारा उपदिष्ट सद्धर्म का आचरण करने में तत्पर श्वेतपटमहाश्रमणसंघ के उपभोग के लिए और तीसरा भाग निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ के उपभोग के लिए दिया।"
२. "श्रीशान्तिवरवर्मेति राजा --- तत्प्रियज्येष्ठतनयः श्रीमृगेशनराधिपः स्वार्यके नृपतौ भक्त्या कारयित्वा जिनालयम् श्रीविजयपलाशिकायां यापनि (नी)-यनिर्ग्रन्थकूर्चकानां स्ववैजयिके अष्टमे वैशाखे संवत्सरे कार्तिकपौर्णमास्याम् --- दत्तवान् भगवद्भयोऽर्हद्भयः।" (हल्सी-ताम्रपत्रलेख / क्र.९९ / जै.शि.सं./मा.च./भा.२)।
यह राजा शान्तिवर्मा के ज्येष्ठ पुत्र मृगेशवर्मा के दानपत्र का अंश है। इस दानपत्र में लिखा है कि मृगेशवर्मा ने अपने स्वर्गवासी पिता के प्रति भक्ति के करण पलाशिका नामक नगर में जिनालय का निर्माण कराकर अपनी विजय के आठवें वर्ष में कार्तिक की पौर्णमासी के दिन यापनीयों, निर्ग्रन्थों और कूर्चकों के लिए भूमिदान किया है। कूर्चक भी जैनों का ही एक सम्प्रदाय था।
इन अभिलेखों में श्वेताम्बरों के लिए श्वेतपट, यापनीयों के लिए यापनीय और कूर्चकों के लिए कूर्चक शब्द का प्रयोग किया गया है। अब दिगम्बर ही शेष रहते
१००. देहली-टोपरा में सात स्तम्भलेख हैं। उनमें यह सप्तम स्तम्भलेख है। (देखिए , डॉ.
शिवस्वरूपसहाय : 'भारतीय पुरालेखों का अध्ययन'। मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली।
तृतीय संस्करण /२००० ई० / पृ. १२९-१३०)। १०१. जैन शिलालेख संगह / माणिकचन्द्र / भा.३/ प्रस्तावना : डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी / पृ.२३ ।
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