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१४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०६ भगवती-आराधना की निम्नलिखित गाथा में हवा, धूप, शीत, दंशमशक आदि की बाधा सहने के लिए जो वस्त्र त्याग देता है उसे निर्ग्रन्थ कहा गया है
जम्हा णिग्गंथो सो वादादवसीददंस-मसयाणं।
सहदि या विविधा बाधा तेण सदेहे अणादरदा॥ ११६६॥ आचार्य कुन्दकुन्द ने अचेलत्वप्रधान अट्ठाईस मूलगुणों में दीक्षित (प्र.सा./३ / ८-९) यथाजातरूपधर (जधजादरूवजादं-प्र.सा/३/५) मुनि को निर्ग्रन्थरूप से दीक्षित कहा है-"णिग्गंथो पव्वइदो।" (प्र.सा.३/६९)।
इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द, उनके ग्रन्थों के वृत्तिकार आचार्य जयसेन, भगवतीआराधना के कर्ता शिवार्य और उसके टीकाकार अपराजितसूरि ने नग्न मुनि को ही 'निर्ग्रन्थ' शब्द से अभिहित किया है।
भगवान् महावीर भी नग्न रहने के कारण ही 'निर्ग्रन्थ' या 'निगंठ' नाम से प्रसिद्ध हुए थे। इसीलिए बौद्ध साहित्य में उनका निगंठनाटपुत्त नाम से उल्लेख किया गया है। प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में निगंठों को अहिरिका (अह्रीक) अर्थात् 'निर्लज्ज' कहा गया है, जो उनके नग्न रहने का सूचक है। इसके अतिरिक्त दिव्यावदान, धम्मपदअट्ठकथा, आर्यशूरकृत जातकमाला, दाठावंस आदि बौद्धग्रन्थों में निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग नग्न जैनसाधु के अर्थ में किया गया है।८
पाँचवीं शती ई० के वराहमिहिर ने 'बृहज्जातक' और 'लघुजातक' में नग्न जैन साधुओं को ही 'निर्ग्रन्थ' संज्ञा दी है। जाबालोपनिषद्, वायुपुराण (वैदिक), पद्मपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण, ब्रह्माण्डपुराण आदि में निर्ग्रन्थ शब्द से दिगम्बरमुनि ही संकेतित किये गये है।९९
अभिलेखों में 'निर्ग्रन्थ' शब्द दिगम्बरजैन मुनि का वाचक
सम्राट अशोक ने अपने सातवें स्तम्भलेख (२४२ ई० पू०) में लिखवाया है कि उसने सभी धार्मिक सम्प्रदायों तथा ब्राह्मणों, आजीविकों और निग्रंथों के कल्याणकारी कार्यों की देखरेख के लिए धर्ममहामात्य की नियुक्ति की है
"धंममहामातापि मे ते बहुविधेसु अठेसु आनुगहिकेसु वियापटा से पवजीतानं चेव गिहिथानं च सव-पासंडेसु --- बाभनेसु आजीविकेसु --- निगंठेसु पि मे
९८. देखिए , चतुर्थ अध्याय / द्वितीय प्रकरण। ९९. देखिए , चतुर्थ अध्याय / प्रथम प्रकरण।
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