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अ० २ / प्र० ६
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १३९
और बाह्य । मिथ्यात्व, चार कषाय तथा नौ नोकषाय, ये चौदह अभ्यन्तर ग्रन्थ हैं और क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन - आसन, कुप्य (वस्त्र) और भाण्ड ( वर्तन ) ये दस बाह्य ग्रन्थ । ९७ चौदह प्रकार के अभ्यन्तर-ग्रन्थ के त्याग से स्वात्मरूप प्रकट होता है और दस प्रकार के बाह्यग्रन्थ के परित्याग से नग्नत्व । इन दोनों को क्रमशः निश्चय और व्यवहारनय से यथाजातरूप कहा गया है। अतः निश्चयनय से स्वात्मरूप को तथा व्यवहारनय से नग्नत्व को धारण करनेवाला निर्ग्रन्थ कहलाता है, जैसा कि आचार्य जयसेन ने कहा है
"व्यवहारेण नग्नत्वं यथाजातरूपं, निश्चयेन तु स्वात्मरूपं तदित्थंभूतं यथाजातरूपं धरतीति यथाजातरूपधरः निर्ग्रन्थः । " (ता.वृ./ प्र.सा./ गा.३/४) ।
यतः वस्त्रादि- बाह्यग्रन्थ के त्याग से अभ्यन्तरग्रन्थ का त्याग सूचित होता है, अतः नग्नता निर्ग्रन्थ होने का बाह्य लक्षण है । इसीलिए आचार्य जयसेन ने कहा है"वस्त्रादिपरिग्रहरहितत्वेन निर्ग्रन्थः । " (ता.वृ./ प्र.सा./गा. ३ / ६९) ।
भगवती आराधना में ग्रन्थ शब्द का प्रयोग विशेषरूप से 'वस्त्र' के अर्थ में किया गया है—
अनुवाद - " शरीर इन्द्रियमय है । ग्रन्थ का ग्रहण मनुष्य देहसुख के लिए ही करता है। इसलिए जो ग्रन्थ का ग्रहण करता है, वह इन्द्रियसुख का अभिलाषी है, यह सिद्ध होता है । "
इंदियमयं सरीरं गंथं गेहदि य देहसुक्खत्थं । इंदियसुहाभिलासो गंथग्गहणेण तो सिद्धो ॥ ११५७ ॥
अपराजितसूरि ने इस गाथा की टीका में 'ग्रन्थ' शब्द का अर्थ 'चादर आदि वस्त्र' किया है । यथा
"परिग्रहं च चेलप्रावरणादिकमिन्द्रियसुखार्थमेव गृह्णाति वातातपाद्यनभिमतस्पर्शनिषेधाय ।" (वि.टी./ भ.आ./गा. ११५७) ।
अनुवाद - " वस्त्र, प्रावरण आदि का ग्रहण मनुष्य इन्द्रियसुख के लिए अर्थात् हवा, धूप आदि अप्रिय स्पर्श से बचने के लिए ही करता है । "
९७.
मिच्छत्तवेदरागा तहेव
हस्सादिया य छद्दोसा ।
चत्तारि तह कसाया चोदस अब्भंतरा गंथा ॥ ४०७ ॥
खेत्तं वत्थु
धणधण्णगदं
दुपदचदुप्पदगदं च ।
जाण - सयणासणाणि य कुप्पे भंडेसु दस होंति ॥ ४०८ ॥ मूलाचार ।
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