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________________ षष्ठ प्रकरण सग्रन्थ के लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द का प्रयोग इतिहासविरुद्ध भगवान् महावीर ने 'ग्रन्थ' शब्द का प्रयोग मोहरागादि अन्तरंगभावों एवं वस्त्रपात्रादि बाह्यद्रव्यों के अर्थ में किया है। अतः 'निर्ग्रन्थ' शब्द इन दोनों प्रकार के परिग्रह से रहित सर्वथा अचेल, नग्न, दिगम्बरसाधु का वाचक है। इसीलिए बौद्धसम्प्रदाय में भगवान् महावीर निगंठनाटपुत्त (निर्ग्रन्थनाथपुत्र / निर्ग्रन्थज्ञातपुत्र) के नाम से प्रसिद्ध हुए थे और उनका अनुयायी श्रमणसंघ निर्ग्रन्थसंघ कहलाया था। वैदिकसाहित्य, संस्कृतसाहित्य, शब्दकोशों और शिलालेखों में भी निर्ग्रन्थ शब्द दिगम्बरजैन साधुओं के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। जम्बू स्वामी के निर्वाण के पश्चात् जब इस संघ के कुछ साधुओं ने वस्त्रपात्रादिपरिग्रह ग्रहणकर श्वेतपटश्रमणसंघ नाम से अलग संघ बना लिया, तब वे 'निर्ग्रन्थ' नाम के अधिकारी नहीं रहे, किन्तु अपने को भगवान् महावीर का उत्तराधिकारी सिद्ध करने के लिए उन्होंने इस नाम का अपहरण कर लिया और इसकी अपने अनुकूल व्याख्या कर डाली। उन्होंने वस्त्रपात्रादि-बाह्यपरिग्रह को ग्रन्थ की परिभाषा से बाहर कर दिया और केवल मोहरागद्वेषरूप अथवा मूर्छारूप आभ्यन्तरपरिग्रह को परिग्रह या 'ग्रन्थ' कहकर स्वयं को निर्ग्रन्थ घोषित कर दिया।५ किन्तु वस्त्रपात्रादि-परिग्रहधारी पुरुष निर्ग्रन्थ शब्द के व्यवहार के अधिकारी नहीं है, क्योंकि यह वस्त्रपात्रादि-परिग्रहरहित दिगम्बरजैन मुनियों और उनके सम्प्रदाय की परम्परागत इतिहास-सिद्ध संज्ञा है। यह दिगम्बरजैन-साहित्य, बौद्धसाहित्य, वैदिकसाहित्य, संस्कृतसाहित्य, शब्दकोष एवं शिलालेख-ताम्रपत्रलेख, इन समस्त ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध है। ये ऐतिहासिक प्रमाण सिद्ध करते हैं कि कम से कम गौतमबुद्ध के जीवनकाल (ईसापूर्व छठी शताब्दी) से 'निर्ग्रन्थ' शब्द वस्त्रपात्रादि-समस्त-परिग्रह से रहित दिगम्बरजैन मुनियों और उनके सम्प्रदाय के लिए ही प्रसिद्ध है। उक्त प्रमाण आगे प्रस्तुत किये जा रहे हैं दिगम्बरग्रन्थों में 'निर्ग्रन्थ' शब्द 'सर्वथा अचेल' का वाचक जिनागम में परिग्रह को 'ग्रन्थ' कहा गया है।६ यह दो प्रकार का है : अभ्यन्तर ९५. जंपि वत्थं वा पायं वा कंबलं पायपुंछणं। तंपि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति अ॥ ६/१९॥ न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इअ वुत्तो महेसिणा॥ ६/२०॥ दशवैकालिकसूत्र । ९६. "परिग्रहः षड्जीवनिकायपीडाया मूलं मूर्छानिमित्तं चेति सकलग्रन्थत्यागो भवतीति पञ्चमं व्रतम्।" विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना / आचेलक्कु'/गा. ४२३/ पृ.३३१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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