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१३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०५ उपदेश को सुनकर वज्रकुमार को संसार से विरक्ति हो गई और उन्होंने उसी समय सोमदेव मुनि के पास निग्रंथ श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर ली।
"श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आर्य वज्र को चारणऋद्धि-सम्पन्न मुनि माना गया है और दोनों परम्पराओं के मध्ययुगीन कथासाहित्य में उनके द्वारा
आकाशगामिनी विद्या के अद्भुत चमत्कारपूर्ण कार्यों से जिनशासन की महती प्रभावना किये जाने के उल्लेख उपलब्ध होते हैं।
"दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में आर्य वज्र के प्रगुरु का नाम सुमित्र और गुरु का नाम सोमदेव बताया गया है, जब कि श्वेताम्बर-परम्परा इन्हें जातिस्मरण-ज्ञानधारी आर्य सिंहगिरि का शिष्य मानती है। नाम, स्थान आदि विषयक कतिपय विभिन्नताओं के उपरान्त भी आर्य वज्र के पिता द्वारा वज्र के जन्म से अनुमानतः ६ मास पूर्व ही प्रव्रज्या ग्रहण करने, माता द्वारा उन्हें उनके पिता को दे दिये जाने, आर्य वज्र के गगनविहारी होने, जैनों के साथ बौद्धों द्वारा की गई धार्मिक उत्सव-विषयक प्रतिस्पर्धा में आर्य वज्र द्वारा जैनधर्मावलम्बियों के मनोरथों की पूर्ति के साथ जिन-शासन की महिमा बढ़ाने आदि आर्य वज्र के जीवन की घटनाओं एवं सम्पूर्ण कथावस्तु की मूल आत्मा में दोनों परम्पराओं का पर्याप्त साम्य है, जो यह मानने के लिये आधार प्रस्तुत करता है कि आर्य वज्र के समय तक जैनसंघ में पृथक्तः 'श्वेताम्बर तथा दिगम्बर' इस प्रकार का भेद उत्पन्न नहीं हुआ था।
"दोनों परम्पराओं के मान्य ये मुनि निश्चितरूप से वे ही वज्रमुनि हैं, जो वीरनिर्वाण की छठी शताब्दी में हुए आर्यरक्षित के विद्यागुरु थे। परम्पराभेद के प्रकट होने का इतिहास भी इसी बात को प्रमाणित करता है। कारण कि श्वेताम्बरपरम्परा की मान्यतानुसार श्वेताम्बर-दिगम्बर-परम्परा का स्पष्ट भेद आर्य वज्र के स्वर्गगमन के पश्चात् वीर नि० सं० ६०९ में और दिगम्बर-परम्परा की मान्यतानुसार वीर नि० सं० ६०६ में माना गया है।" (जै.ध.मौ.इ./ भा.२/ पृ.५८२-५८५)।
आचार्य श्री हस्तीमल जी ने वज्रमुनि और आर्यवज्र (ई० पू० ३१-ई० ५७) के एकत्व को उनके समय तक दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद न होने का प्रमाण माना है। किन्तु , वस्तुतः यह श्वेताम्बर आर्यवज्र का दिगम्बरमत स्वीकार करने का प्रमाण है, क्योंकि दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद तो जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् ही हो गया था, इसका सप्रमाण प्रतिपादन षष्ठ अध्याय में द्रष्टव्य है।
डॉ० एम० डी० वसन्तराज का कथन है कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वामी भी श्वेताम्बर-परम्परा से दिगम्बर-परम्परा में आये थे। श्वेताम्बर-परम्परा में उनका
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