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अ०२ / प्र० ५
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १३५
पाषाणहृदय, मूर्ख, वंचक ! इस दिगम्बरवेष को स्वेच्छा से छोड़ कर मेरे साथ घर चलता हो तो चल, अन्यथा सम्हाल अपने इस पुत्र को ।
" इतना कहने पर भी मुनि को निश्चलभाव से ध्यानमग्न देख कर यज्ञदत्ता ने अपने उस कुसुमकोमल नवजात पुत्र को मुनि के चरणों पर लिटा दिया और स्वयं अपने घर की ओर लौट गई।
" सूर्य के प्रचण्ड ताप से शिला जल रही थी। पैरों पर से प्रतप्त शिला पर गिरने से बालक का कहीं प्राणान्त न हो जाय, इस करुणापूर्ण आशंका से मुनि सोमदेव अपने पैरों को विष्टर की तरह बनाये अचल मुद्रां में खड़े रहे। मुनि ने मन ही मन दृढ़ संकल्प किया कि जब तक वह उपसर्ग समाप्त नहीं हो जायगा, तब तक आहारादि ग्रहण करना तो दूर, शरीर को किंचिन्मात्र भी हिलाएँगे - डुलाएँगे तक नहीं । मुनि इस प्रकार का अभिग्रह कर पुनः ध्यानमग्न हो गये ।
" यज्ञदत्ता के लौटने के थोड़ी ही देर पश्चात् भास्करदेव नामक विद्याधरराज अपनी पत्नी के साथ मुनिदर्शन हेतु वहाँ पहुँचा । जब उसने सुन्दर, स्वस्थ और तेजस्वी शिशु को मुनि के पैरों पर लेटे हुए देखा, तो मुनिवन्दन के पश्चात् उसने उसे उठा कर अपनी पत्नी की गोद में देते हुए कहा - " धर्मिष्ठे ! लो, मुनिदर्शन के तात्कालिक सुखद फल के रूप में हम सन्ततिविहीनों को यह पुत्र मिल गया है।" सूर्य की प्रखर रश्मियों की ज्वालामाला का उस शिशु पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था, इस कारण विद्याधरदम्पती ने बालक का नाम 'वज्र' रखा। उन्होंने वज्र को अपना पुत्र घोषित करते हुए बड़े दुलार के साथ उसका लालन-पालन किया । शिक्षायोग्य वय में वज्र को समुचित शिक्षा दिलाने तथा चमत्कारपूर्ण विद्याएँ सिखाने की व्यवस्था की गई।
" दिगम्बर - परम्परा में श्वेताम्बर - परम्परा की तरह आर्य वज्र का साधुसंघ में रहना नहीं माना गया है। बृहत्कथाकोश के अनुसार पवनवेगा नाम की एक विद्याधर कन्या के साथ और उपासकाध्ययन के अनुसार इन्दुमती और पवनवेगा नामक दो कन्याओं के साथ वज्रकुमार का विवाह होना माना गया है।
" उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों में बताया गया है कि अनेक वर्षों तक गार्हस्थ्यजीवन, का सुखोपभोग करने के पश्चात् एक दिन वज्रकुमार को अपने मित्रजनों से यह विदित हुआ कि भास्करदेव उसके पिता नहीं, अपितु पालक मात्र हैं । वस्तुतः उसके पिता तो सोमदेव हैं, जो उसके जन्म से पहले ही मुनि बन चुके हैं। वस्तु-स्थिति से परिचित होते ही वज्रकुमार ने प्रतिज्ञा कर डाली कि वह अपने पिता के दर्शन किये बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करेगा। भास्करदेव तत्काल वज्रकुमार को साथ लेकर मुनि सोमदेव के दर्शनों के लिये प्रस्थित हुआ । दर्शन-व - वन्दन के पश्चात् मुनि के त्याग-विरागपूर्ण
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