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________________ १३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२ / प्र०५ खाने का दोहद उत्पन्न हुआ। उस समय आम्रफल की ऋतु नहीं थी। दोहद की पूर्ति न हो सकने के कारण यज्ञदत्ता दिन-प्रतिदिन दुर्बल होने लगी। सोमदेव को अपनी गर्भिणी पत्नी के कृषकाय होने का कारण ज्ञात हुआ, तो वह बड़े असमंजस में पड़ गया। अन्ततोगत्वा वह अपने कुछ छात्रों के साथ आम्रफल की खोज में घर से निकला। वह अनेक आम्रनिकुंजों, वनों और उद्यानों में घूमता फिरा, किन्तु असमय में आम्रफल कहाँ से प्राप्त होता? पर सोमदेव हताश नहीं हुआ, वह आगे बढ़ता ही गया। एक दिन वह एक विकट वन में पहुँचा। उस वन के मध्यभाग में उसने एक सघन आम्रवृक्ष के नीचे बैठे हुए एक तपस्वी श्रमण को देखा। यह देख कर उसके हर्ष का पारावार नहीं रहा कि वह आम्रवृक्ष बड़े-बड़े एवं पक्व आम्रफलों से लदा हुआ है। आम्र की ऋतु नहीं होते हुए भी आम्रवृक्ष को आम्रफलों से लदा देख कर सोमदेव ने उसे मुनि के तपस्तेज का प्रभाव समझा और भक्तिविभोर होकर उसने मुनि के चरणों पर अपना मस्तक रख दिया। सोमदेव ने अपने साथ आये हुए छात्रों में से एक छात्र के साथ अपनी पत्नी के पास आम्रफल भेज दिया और शेष छात्रों के साथ मुनि की सेवा में बैठकर उपदेश-श्रवण करने लगा। मुनि के त्याग-वैराग्यपूर्ण उपदेश और उनसे अपने पूर्वभव के वृत्तान्त को सुन कर सोमदेव को जातिस्मरण-ज्ञान हो गया। भीषण भवाटवी के भयावह भवप्रपंच से मुक्त होने की एक तीव्र उत्कण्ठा उसके अन्तर में उद्भूत हुई और उसने तत्क्षण समस्त सांसारिक झंझटों को एक ही झटके में तोड़ कर उन अवधिज्ञानी सुमित्र मुनि के पास निग्रंथ-श्रमण-दीक्षा ग्रहण करली। सोमदेव के साथ आये हुए छात्र अहिछत्र नगर की और लौट गये। एक छात्र के साथ आये आम्र से यज्ञदत्ता का दोहदपूर्ण हो गया। बाद में आये छात्रों के मुख से अपने पति के प्रवजित होने का समाचार सुन कर यज्ञदत्ता को बड़ा दुःख हुआ। गर्भकाल की समाप्ति पर यज्ञदत्ता ने तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। "उन्हीं दिनों मुनि सोमदेव अपने गुरु सुमित्राचार्य के साथ विचरण करते हुए सोपारक नगर आये। मुनि सोमदेव गुरु की आज्ञा ले पास ही के पर्वत पर पहुँचे और वहाँ एक शिला पर खड़े हो सूर्य की आतापना लेते हुए ध्यानमग्न हो गये। यज्ञदत्ता को जब यह विदित हुआ कि मुनि सोमदेव निकटस्थ पर्वत पर सूर्य की आतापना ले रहे हैं, तो वह नवजात शिशु को लेकर उस पर्वत पर मुनि के पास पहुँची। उसने बड़ी ही अनुनय-विनयपूर्वक सोमदेव को एक बार अपने तेजस्वी पुत्र की ओर देखने तथा घर लौट कर अपने गार्हस्थ्यभार को वहन करने की प्रार्थना की। बड़ी देर तक अनुनय-विनय करने के पश्चात् भी जब उसने देखा कि मुनि सोमदेव ने घर चलना तो दूर, अपने पुत्र की ओर आँख उठा कर भी नहीं देखा है, तो उसने कुद्ध हो आक्रोशपूर्ण स्वर में कहा-"ओ मेरे मन को जला डालनेवाले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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