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अ०२ / प्र०५ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १३३ धर्मसागर जी, आचार्य विद्यासागर जी, आचार्य विद्यानन्द जी, आचार्य वर्धमानसागर जी, उपाध्याय ज्ञानसागर जी आदि जैसे परमपूज्य दिगम्बराचार्यों, उपाध्यायों और उनके विशाल शिष्यसमुदायों ने जिनलिंग धारण कर उसकी महती प्रभावना की है और कर रहे हैं। अनेक सुप्रसिद्ध बहुमान्य ज्ञानी-ध्यानी-संयमी-तपस्वी जिनलिंगी आचार्य, उपाध्याय
और उनके शिष्य आत्मसाधना और धर्म-प्रभावना द्वारा जिनलिंग की महिमा ख्यापित कर रहे हैं। वर्तमान में इन दिगम्बर आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं की उपस्थिति जिनलिंगी-परम्परा के अद्यावधि अविच्छिन्न रहने का जीवन्त प्रमाण है। इससे साबित होता है कि भगवान् महावीर द्वारा प्रणीत अचेलत्व या जिनलिंग का आचरण पंचमकाल में अच्छी तरह संभव है।
श्वेताम्बरों का दिगम्बरमत के प्रति आकर्षण पंचमकाल में जिनलिंगग्रहण संभव होने के कारण ही उसकी समीचीनता का अनुभव कर प्राचीनकाल से ही अनेक श्वेताम्बर मुनि और श्रावक श्वेताम्बरपरम्परा को छोड़कर दिगम्बरपरम्परा में आते रहे हैं और आ रहे हैं। आर्य महागिरि का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। दिगम्बरपंथ को स्वीकार करनेवाले एक और आचार्य हैं आर्य वज्रस्वामी। तिलोयपण्णत्ती में अन्तिम प्रज्ञाश्रमण के रूप में बताये गये वज्रयश नाम के आचार्य से आर्य वज्रसूरि के अभिन्न होने की संभावना मान्य डॉ० हीरालाल जी जैन ने व्यक्त की है। (षट्खण्डागम/ पुस्तक २/ प्रस्तावना / पृष्ठ ३४-४०)।" ९२
श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी ने भी दिगम्बर वज्रमुनि और श्वेताम्बर आर्यवज्र को एक ही व्यक्ति बतलाया है। वे लिखते हैं
"श्वेताम्बर-परम्परा की तरह दिगम्बर-परम्परा के 'उपासकाध्ययन' और हरिषेणकृत 'वृहत्कथाकोश' में भी प्रभावना अंग का वर्णन करते हुए वज्रमुनि का उल्लेख किया गया है। दोनों परम्पराओं में वज्रमुनि को विविध विद्याओं का ज्ञाता और धर्म का प्रभावक माना गया है। दोनों परम्पराओं में एतद्विषयक जो अन्तर अथवा समानता है वह संक्षेप में इस प्रकार है
"श्वेताम्बर-परम्परा में आर्य वज्र के पिता का नाम धनगिरि और माता का नाम सुनन्दा बताया गया है, जबकि दिगम्बरसाहित्य में आर्य वज्र को पुरोहित सोमदेव
और यज्ञदत्ता का पुत्र बताया है। दिगम्बरपरम्परा के उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों में उल्लेख है कि जिस समय आर्य वज्र गर्भ में थे, उस समय उनकी माता यज्ञदत्ता को आम्रफल
९२. गुरुपरम्परा से प्राप्त दिगम्बर जैन आगम : एक इतिहास / पृष्ठ ६२।
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