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________________ १३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२ / प्र० ५ करने पर भी नग्न है और जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है, वह नग्न रहने पर भी अनग्न है। देखिये, लिंगपुराण की यह उक्ति इन्द्रियैरजितैर्नग्नो दुकूलेनापि संवृतः । तैरेव संवृतो गुप्तो न वस्त्रं कारणं स्मृतम् ॥ १ / ३४ / १४ । ये प्रमाण सिद्ध करते हैं कि न केवल दिगम्बरग्रन्थों में, अपितु श्वेताम्बरमान्य आगमों में भी हीनसंहननधारी पुरुषों के लिए अचेललिंग को अंगीकार करने का उपदेश दिया गया है। अतः उनके लिए अचेललिंग के निषिद्ध होने का कथन मनगढन्त है । और यतः हीनसंहननधारियों के लिए अचेललिंग का अंगीकार भगवान् महावीर द्वारा निषिद्ध नहीं है, अतः अचेललिंगधारी साधुओं की परम्परावाला दिगम्बरजैनमत निह्नवमत नहीं है, अपितु तीर्थंकरप्रणीत है, यह स्वतः सिद्ध होता है। इससे इस रहस्य का उद्घाटन हो जाता है कि दिगम्बरमत को निह्नवमत सिद्ध करने की चेष्टा के पीछे श्वेताम्बराचार्यों का एकमात्र प्रयोजन पंचमकाल में श्वेताम्बरमान्य सचेललिंग को ही जिनोक्त, उचित एवं अनिवार्य ठहराना है, जो सत्य नहीं है, क्योंकि श्वेताम्बरग्रन्थों से ही सिद्ध है कि भगवान् महावीर ने एकमात्र अचेलकधर्म का उपदेश दिया है। ४ दिगम्बरपरम्परा में जिनलिंग आज भी प्रवर्तमान जम्बूस्वामी के बाद भी जिनलिंगधारी मुनियों की परम्परा विद्यमान रही और आज तक चली आ रही है। उनके बाद विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु, ये पाँच श्रुतकेवली हुए । तत्पश्चात् क्रमशः विशाखाचार्य आदि ग्यारह दशपूर्व - धारियों ने, नक्षत्र आदि पाँच एकादशांगधारियों ने, सुभद्र आदि चार दश - नव-अष्टांग धारकों ने तथा अर्हद्बलि, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि इन पाँच एकांगधारकों एवं गुणधर ने९१ जिनलिंग ग्रहण कर अपने विशाल जिनलिंगी मुनिसंघों के साथ दिगम्बरपरम्परा को देदीप्यमान किया। उनके पश्चात् आचार्य कुन्दकुन्द, शिवार्य, वट्टकेर, गृध्रपिच्छ, यतिवृषभ, समन्तभद्र, स्वामिकुमार, पूज्यपाद देवनन्दी, सिद्धसेन, भट्ट अकलंक, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, अमृतचन्द्र, जयसेन आदि बहुश्रुत दिगम्बराचार्यों की दीर्घपरम्परा अवतरित हुई, जिन्होंने अपनी अमर साहित्यिक कृतियों से भगवान् महावीर के उपदेश को भव्य जीवों तक पहुँचाने का श्लाघ्य कार्य किया । Jain Education International वर्तमान युग में भी आचार्य शान्तिसागर जी, आचार्य वीरसागर जी, आचार्य शिवसागर जी, आचार्य देशभूषण जी, आचार्य ज्ञानसागर जी, आचार्य विमलसागर जी, आचार्य ९१. देखिये, नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली ( षट्खण्डागम / पु. १ / प्रस्तावना / पृ.२१-२३) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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