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________________ अ० २ / प्र० ५ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १३१ है । किन्तु उक्त श्वेताम्बर - आगमों में भी मुनियों को ओषधि - विशेष का रसपिलाकर नपुंसक बनाने की व्यवस्था का निर्देश नहीं है। इसके विपरीत दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के शास्त्रों में (जैसे 'तत्त्वार्थसूत्र' में) मुनि को 'नाग्न्य' एवं 'स्त्री'परीषहों के होने की संभावना का उल्लेख किया गया है तथा वैराग्यभावना से कामविकार का निरोधकर उनपर विजय प्राप्त करने का उपदेश दिया गया है। पूज्यपाद स्वामी एवं भट्ट अकलंकदेव के वचन पूर्व में उद्धृत किये जा चुके हैं। श्वेताम्बराचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने भी लिखा है कि विशिष्टश्रुतपरिणति आदि से रहित मुनि ही निर्वस्त्र रहने पर स्त्री के दर्शन से ( पुरुषचिह्न में विकृति उत्पन्न होने के कारण) निर्लज्जता को प्राप्त हो सकता है, विशिष्ट श्रुतपरिणति आदि से युक्त मुनि नहीं-‘“लज्जार्थं वस्त्रं, तद्व्यतिरेकेणाङ्गनादौ विशिष्ट श्रुतपरिणत्यादिरहितस्य निर्लज्जतोपपत्तेः " ( हारि. वृत्ति / दश. वै. सू./६/१९ ) । दिगम्बरजैन मुनि स्त्री के रूप में सदा अपवित्र और बीभत्स शव के दर्शन करते हैं। इस विशिष्ट ज्ञानपरिणति के कारण उनके मन में वैराग्यभाव प्रवाहित होता रहता है, फलस्वरूप कामविकार उत्पत्ति नहीं हो पाती । उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि श्वेताम्बराचार्य श्री नरेन्द्रसागर सूरि का यह कथन कि दिगम्बर मुनियों को वनस्पति का रस पिलाकर नपुंसक बना दिया जाता है, सर्वथा कपोलकल्पित एवं दुर्भावनापूर्ण है। श्वेताम्बराचार्य जी ने उपर्युक्त आगमवचनों का अवलोकन नहीं किया और न वनस्पति का रस पिलाकर मुनियों को नपुंसक बनाये जाने की क्रिया अपनी आँखों से देखी है। उन्होंने आगमज्ञानहीन किन्हीं रथ्यापुरुषों से सुनी हुई बात को सत्य मान लिया है। उसकी उन्होंने स्वयं परीक्षा भी नहीं की । परीक्षा का कार्य उन्होंने बुद्धिशालियों पर छोड़ दिया है, जैसा कि उन्होंने स्वयं लिखा है - " इस बात में कितना रहस्य है, उसकी बुद्धिशाली को ही परीक्षा करनी चाहिए ।" (पृ.२० ) । इस प्रकार उन आचार्य जी के ही वचनों से सिद्ध है कि उनके द्वारा कही हुई बात एक अफवाह है, जो स्वयं उनके द्वारा फैलायी गयी है या उनके ही सम्प्रदाय के अन्य लोगों के द्वारा । अतः अपराजितसूरि, पूज्यपाद स्वामी एवं भट्ट अकलंक देव का यह कथन अकाट्य है कि नग्न रहने से मुनि अपनी इन्द्रियों को वश में करने का दृढ़ प्रयत्न करता है. और उससे उसके चित्त की विशुद्धि प्रकट होती है। आजीविक साधु और श्वेताम्बरीय आगमों को मानने वाले कुछ यापनीय साधु भी नग्न रहते थे, किन्तु उनके विषय में भी यह उल्लेख नहीं मिलता कि उन्हें वनस्पतिविशेष का रस पिलाकर पुंस्त्वहीन कर दिया जाता था। जैनेतर भारतीय साहित्य में भी यह मनोवैज्ञानिक सत्य मान्य है कि जिसकी इन्द्रियाँ अविजित हैं, वह वस्त्र धारण Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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