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________________ १३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०५ नहीं होता)। इसे नाग्न्यपरीषहजय कहते हैं। अतः जातरूप को धारण करना उत्तम है तथा श्रेयःप्राप्ति का कारण है। जो अन्य साधु मनोविकार को रोकने में असमर्थ होते हैं, वे तज्जन्य अंगविकार को छिपाने के लिए लँगोटी, अर्द्धफालक, चीवर आदि धारण करते हैं। इससे केवल अंग का संवरण (आच्छादन) होता है, कर्मों का संवर नहीं।" "एकान्तेष्वारामभवनादिप्रदेशेषु नवयौवनमदविभ्रममदिरापानप्रमत्तासु प्रमदासु बाधमानासु कूमतेन्द्रियविकारस्य ललितस्मित-मृदुकथित-सविलासवीक्षण-प्रहसनमदमन्थरगमन-मन्मथशरव्यापार-विफलीकरणस्य स्त्रीबाधापरिषह-सहनमवगन्तव्यम्।" (स.सि./९/९)। अनुवाद-"एकान्त उद्यान, भवन आदि में बैठे हुए मुनि के ब्रह्मचर्य को जब नवयौवन के मद से मत्त-हावभाववाली तथा मदिरापान से प्रमत्त प्रमदाएँ भंग करने का प्रयत्न करें, तब जैसे कछुआ अपने अंगों को संवृत कर लेता है, वैसे ही मुनि का अपने इन्द्रियविकार को रोक कर प्रमदाओं के मधुर स्मित (मुस्कान), मीठी बातें, हावभावपूर्वक देखना-हँसना, मदमाती चाल आदि कामबाणों के प्रहार को विफल कर देना स्त्रीपरीषहजय कहलाता है।" - इन व्याख्यानों में आचार्यों ने कहा है कि मुनि के मन में काम-विकार उत्पन्न हो सकता है, जिससे उसके पुरुषांग में भी विकार संभव है, अतः मुनि को उसे वैराग्यभावना से रोकना चाहिए। यदि मुनि को वनस्पति-विशेष का रस पिलाकर नपुंसक बनाने का विधान होता, तो कामविकार को वैराग्यभावना से रोकने का उपदेश न दिया जाता, क्योंकि तब पुरुषांग (लिंग) में विकार की उत्पत्ति संभव ही न होती और उसके फलस्वरूप नाग्न्य-परीषह एवं स्त्रीपरीषह को परीषहों में शामिल भी न किया जाता। इसके बदले चरणानुयोग के ग्रन्थों में मुनिदीक्षाविधि के अन्तर्गत यह उल्लेख किया जाता कि दीक्षार्थी को दीक्षा के पूर्व अमुक-अमुक ओषधि का रस पिलाकर नपुंसक बना दिया जाय। किन्तु यह उल्लेख किसी भी दिगम्बरग्रन्थ में नहीं है। श्वेताम्बरमान्य 'आचारांग' और 'स्थानांग' में भी पूर्ण अचेलकता (नग्नता) को सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है और उनमें किसी भी मुनि को न तो जिनकल्पी कहा गया है, न किसी को वस्त्रलब्धि प्राप्त होने का कथन है। अतः आचारांगोक्त नग्नवेश अपनानेवाले मुनियों के सामने भी पुरुषांग में विकारोत्पत्ति की समस्या का प्रसंग आता ९०. देखिये, तृतीय अध्याय / प्रथम प्रकरण / शीर्षक ७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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