SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०२/प्र०५ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १२९ "उनके (दिगम्बर जैन मुनियों के) ही सहवासियों से उनकी कमजोर बातें जानने को मिली हैं कि जैसे नसबन्दी किये हुए पुरुष को कामोद्दीपक पदार्थ उपस्थित होने पर भी उनकी इन्द्रियाँ उत्तेजित नहीं होती हैं, उसी तरह प्रभावक कहलाते दिगम्बर मुनियों को पहले से ही वनस्पति के रस पिलाकर उनको पुरुषत्वनाशक स्थितिवाले बना देते हैं। इस बात में कितना रहस्य है, उसकी बुद्धिशाली को ही परीक्षा करनी चाहिए।" आचार्य जी का यह कथन बाल-उक्तियों के समान हास्यास्पद है। पहली बात तो यह है कि परिवारनियोजन के लिए जो पुरुष अपनी नसबन्दी कराते हैं, उससे वे नपुंसक नहीं बनते, चिकित्साविज्ञान इसे प्रमाणित करता है। यदि पुरुष नपुंसक बनता, तो कोई भी पुरुष नसबंदी के लिए तैयार नहीं होता, सभी पुरुष अपनी पत्नी की ही नसबन्दी कराते। दूसरी बात यह है कि यदि दिगम्बर मुनियों को वनस्पति का रस पिलाकर नपुंसक बनाया जाता होता, तो अपराजित सूरि यह न लिखते कि "जो अचेल होता है, वह इन्द्रियों को वश में करने का दृढ़ प्रयत्न करता है, अन्यथा शरीर में विकार उत्पन्न होने पर लज्जित होने की नौबत आ सकती है" क्योंकि नपुंसक बना दिये जाने पर शरीर में विकार उत्पन्न होने की नौबत आ ही नहीं सकती। किन्तु उन्होंने ऐसा लिखा है, इससे स्पष्ट है कि दिगम्बर जैन मुनियों को वनस्पति का रस पिलाकर नपुंसक बनाये जाने की बात कपोलकल्पित है। तीसरी बात यह है कि स्त्री के दर्शनचिन्तन आदि से पुरुषांग में जो विकार उत्पन्न हो सकता है, उसे वैराग्यभावना द्वारा उत्पन्न न होने देने को ही तत्त्वार्थसूत्र में नाग्न्यपरीषहजय और स्त्रीपरीषहजय कहा गया है, जिसका स्पष्टीकरण टीकाकारों ने इस प्रकार किया है "नाग्न्यमभ्युपगतस्य स्त्रीरूपाणि नित्याशुचिबीभत्सकुणपभावेन पश्यतो वैराग्यभावनावरुद्धमनोविक्रियस्याऽसम्भावितमनुष्यत्वस्य नाग्न्यदोषासंस्पर्शनात् परीषहजयसिद्धिरिति जातरूपधरणमुत्तमं श्रेयः प्राप्तिकारणमित्युच्यते। इतरे पुनर्मनोविक्रियां निरोद्भुमसमर्थास्तत्पूर्विकाङ्गविकृतिं निगृहितकामाः कौपीन-फलक-चीवराद्यावरणमातिष्ठन्ते अङ्गसंवरणार्थमेव तन्न कर्मसंवरकारणम्।" (तत्त्वार्थराजवार्तिक / ९/ ९/१०)। अनुवाद-"जिसने नाग्न्यव्रत स्वीकार किया है, वह स्त्रीरूप को नित्य अपवित्र, बीभत्स शव-कंकाल के समान समझता हुआ वैराग्यभावना से मनोविकार को अवरुद्ध करता है, जिससे नग्नता में दोष का स्पर्श नहीं हो पाता (पुरुषाङ्ग में विकार उत्पन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy