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________________ १२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२ / प्र० ५ में मुनि कामविकारजन्य लोकनिन्दा के भय से मुक्त हो जाता है, अतः इस अवस्था में अजितेन्द्रिय मुनि के मन में कामविकार की उत्पत्ति संभव है। अपराजित सूरि ने इस मनोवैज्ञानिक सत्य का बड़े ही सुन्दर दृष्टान्त द्वारा उद्घाटन किया है। वे कहते हैं- " जैसे सर्पों से भरे जंगल में विद्या - मन्त्र आदि से रहित पुरुष बड़ी सावधानी से चलता है, वैसे ही जो अचेल होता है वह इन्द्रियों को वश में करने का दृढ़ प्रयत्न करता है, अन्यथा शरीर में विकार उत्पन्न होने पर लज्जित होने की नौबत आ सकती है।”८८ वे आगे लिखते हैं- " अचेलता में चित्त की विशुद्धता को प्रकट करने का गुण है । जो शरीर को लँगोटी आदि से ढँक लेते हैं, उनके चित्त की विशुद्धि का ज्ञान नहीं हो पाता । किन्तु जो अचेल रहते हैं, उनके शरीर की निर्विकारता आन्तरिक विरागता को प्रकट कर देती है । " ८९ यह नाग्न्यपरीषह को जीतने का लक्षण है । नाग्न्यपरीषहजय के वैराग्यभावनारूप मनोवैज्ञानिक उपाय को भट्ट अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में रेखांकित किया है। (देखिये, अगला शीर्षक ) । तत्त्वार्थसूत्र में हीनसंहननधारी मुनियों के लिए नाग्न्यपरीषहजय का उपदेश है। इससे सिद्ध है कि लिंगोत्थान की संभावना के नाम से मुनियों के लिए वस्त्रधारण को अपरिहार्य बतलाना आगमवचन नहीं है, अपितु कल्पितवचन है। ३.८. नपुंसक बनाये जाने की धारणा हास्यास्पद 2 श्वेताम्बराचार्यों की यह दृढ़ धारणा है कि श्रावक हो या साधु वस्त्रधारी हो या नग्न, निमित्त मिलने पर उसका लिंगोत्थान हुए बिना नहीं रह सकता । अतः उसे छिपाने के लिए वे साधु का वस्त्रधारण अनिवार्य मानते हैं। इसलिए दिगम्बर मुनि नग्न रहने पर भी जो इस दोष से मुक्त रहते हैं, उसके विषय में कुछ नये श्वेताम्बर साधुओं की यह धारणा है कि उन्हें ओषधिविशेष का रस पिलाकर नपुंसक बना दिया जाता है, इसी कारण उनके पुरुषांग में विकार उत्पन्न नहीं होता । एक 'शिशु आचार्य' उपाधिधारी श्री नरेन्द्रसागर सूरि नाम के वर्तमान श्वेताम्बराचार्य 'क्या दिगम्बर प्राचीन हैं' नामक लघु पुस्तिका में पृष्ठ २० पर लिखा है ८८. “सर्पाकुले वने विद्यामन्त्रादिरहितो यथा पुमान् दृढप्रयत्नो भवति एवमिन्द्रियनियमने अचेलोऽपि प्रयतते । अन्यथा शरीरविकारो लज्जनीयो भवेदिति । " विजयोदयाटीका / भगवतीआराधना / गा. 'आचेलक्कुद्देसिय ' / ४२३ / पृ. ३२१ । ८९. “चेतोविशुद्धिप्रकटनं च गुणोऽचेलतायाम् । कौपीनादिना प्रच्छादयतो भावशुद्धिर्न ज्ञायते । निश्चेलस्य तु निर्विकारदेहतया स्फुटा विरागता ।" विजयोदयाटीका / भगवती आराधना /गा / ४२३ / पृ.३२२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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