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________________ अ०२/प्र०५ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १२७ माना गया है, क्योंकि यह सच्चे वैराग्य का लक्षण है, जो मोक्षमार्ग का प्राण है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री जिनभद्रगणी आदि श्वेताम्बराचार्यों ने आगम के नाम पर अचेलत्व को जो लज्जा, कुत्सा एवं असंयम का हेतु और लोकमर्यादा के विरुद्ध बतलाकर साधु के लिए वस्त्रधारण को अनिवार्य ठहराया है, वह आगमवचन नहीं है, अपितु उनका मनगढन्त दर्शन है। ३.७. वैराग्यपरिणत ज्ञानी नग्नमुनि का लिंगोत्थान संभव नहीं जिनभद्रगणी-क्षमाश्रमण आदि आचार्यों ने साधु के लिए वस्त्रधारण आवश्यक होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह बतलाया है कि स्त्रीदर्शन आदि से साधु का लिंगोत्थान संभव है। नग्न रहने पर उसका लोगों की दृष्टि में आना अनिवार्य है। इससे मुनि और धर्म की निन्दा तथा दर्शक स्त्रियों में भी कामविकार की उत्पत्ति होगी, जो निन्दनीय है। इसे रोकने के लिए साधु को वस्त्रधारण करना अनिवार्य है।८७ श्री जिनभद्रगणी आदि का यह कथन एकान्तवाद से दूषित है। यह स्थिति उन्हीं साधुओं में संभव है, जो वैराग्यपरिणत, ज्ञानी और अन्तर्मन से मुक्त्यर्थी नहीं हैं, अपितु जिनके मन में भोगाकांक्षा अवदमित रूप में विद्यमान है। और ऐसे साधुओं में भी लोकभय के कारण सार्वजनिक स्थान में लिंगोत्थान की अत्यल्प संभावना होती है। किन्तु जो साधु वैराग्यपरिणत, ज्ञानी और अन्तर्मन से मुक्ति के अभिलाषी हैं, वे प्रतिपल अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा में यत्नशील होते हैं। उनके लिंगोत्थान की एकान्त में भी संभावना नहीं होती, सार्वजनिक स्थान की तो बात ही दूर। वर्तमान में दिगम्बरमुनियों के अनेक संघ विद्यमान हैं, जिन्हें स्त्रियाँ आहारदान करती हैं, उनके दर्शन करती हैं, प्रवचन सुनती हैं, किन्तु युवा मुनियों के भी अंगों में कामविकार नहीं देखा जाता। नग्नावस्था में मुनि के मन में कामविकारोत्पत्ति-निमित्तक लोकनिन्दा का भय भी सक्रिय रहता है और यह मनोविज्ञान का नियम है कि भय की अवस्था में कामविकार की उत्पत्ति असंभव हो जाती है। हाँ, सवस्त्र अवस्था ८७. क-वे उव्वेऽवायडे वाइये हीखद्दे पजणणे चेव। तेसिं अणुग्गहट्ठा लिंगुदयट्ठा य पट्टो ओ॥५॥ "तत्र प्रजनने मेहने 'वेउव्वित्ति' वैक्रिये विकृते तथा अप्रावृतेऽनावृते, वातिकेचोत्सूनत्वभाजने, हिया लज्जया सत्या खड्डे बृहत्प्रमाणे 'लिंगुदयट्ठत्ति' स्त्रीदर्शने लिङ्गोदयरक्षणार्थं च पटश्चोलपट्टो मत इति।" हेम.वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा. २५७५-७९ । ख-"एवमुक्तप्रकारेण जिनकल्पिकाः स्थविरकल्पिकाश्चेत्युभयेऽपि प्रागुक्तगुणहेतवे वस्त्राणि बिभ्रति । अन्यथा प्रवचनखिंसादयः स्त्रीजनस्यात्मनश्च मोहोदयादयो बहवो दोषाः स्युः।" प्रवचनपरीक्षा /१/२/३१/ पृ.९५। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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