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________________ १२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०५ के लिए जो अग्निप्रज्वलन आदि कार्य किये जायेंगे, उनसे जीवहिंसारूप महान् असंयम होगा।"८४ और प्रवचनपरीक्षाकार कहते हैं-"यदि शीतादिसहन करने के लिए वस्त्रधारण किये जाते हैं, तो किये जायँ, किन्तु अवाच्य (नाम भी न लेने योग्य) अवयव (शिश्न) को छिपाने के लिए तो धारण करना ही चाहिए।"८५ किन्तु ये मान्यताएँ आचारांग-वर्णित मान्यताओं के विपरीत हैं। आचारांग में श्रमणाचार के जिनकल्प और स्थविरकल्प-रूप भेद नहीं किये गये हैं।८६ उसमें साधुओं के सामान्य आचार का वर्णन है। उसमें सामान्य-साधुओं में से ही किसी में लज्जा का सद्भाव, किसी में अभाव, किसी को परीषह सहने में समर्थ, किसी को असमर्थ बतलाते हुए उन्हें योग्यतानुसार वस्त्रधारण करने अथवा अचेल रहने का उपदेश दिया गया है, किन्तु अचेलत्व के गुण दर्शाते हुए जोर अचेल रहने पर ही दिया गया है। यह कहीं भी नहीं कहा गया है कि "वर्तमान में अचेललिंग धारण करने की योग्यता समाप्त हो गयी है, इसलिए सभी साधुओं को वस्त्र धारण करना चाहिए , अचेल किसी को भी नहीं होना चाहिए।" स्थानांग और उत्तराध्ययनसूत्र में सचेलत्व की अपेक्षा अचेलत्व की श्रेष्ठता का प्रति-पादन कर अचेलत्व को ही चुनने की प्रेरणा दी गई है। (इन ग्रन्थों के उद्धरण आगे तृतीय अध्याय के प्रथम प्रकरण (शीर्षक ६,७) में द्रष्टव्य हैं)। इस प्रकार श्वेताम्बरागम आचारांग, स्थानांग और उत्तराध्ययन में अचेलत्व को श्रेष्ठ एवं ग्राह्य बतलाया गया है, जिससे सिद्ध है कि इन श्वेताम्बर-आगमों में अचेलत्व को न तो संयम का घातक माना गया है, न शिष्टता-सभ्यता अथवा लोकमर्यादा के विरुद्ध स्वीकार किया गया है, बल्कि जो मुक्त्यर्थी साधु नग्न होने पर लज्जा का अनुभव नहीं करता तथा कुत्सा (लोकनिन्दा) से भयभीत नहीं होता, उसे प्रशंसनीय ८४. जिणकप्पाजोग्गाणं ही कुच्छा-परीसहा जओऽवस्सं। ही लज्ज त्ति व सो संजमो तदत्थं विसेंसेण ॥ २६०३ ॥ विशेषावश्यकभाष्य। "जिनकल्पायोग्यानां साधूनां ह्री-कुत्सा-परीषहलक्षणं वस्त्रधारणकारणं पूर्वाभिहितस्वरूपमवश्यमेव सम्भवति ततो धरणीयमेव वस्त्रम्। यदि वा कुत्सा-परीषहार्थं तद् न ध्रियते तथापि हीर्लज्जा स च संयमस्तदर्थं तावद् विशेषेणैव वस्त्रं धरणीयम्। अन्यथाऽग्निज्वलनादिना बृहदसंयममापत्तेरिति।" हेम.वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा. २६०३। ८५. “अथ शीतादिसहनार्थं वस्त्रं परिह्रियते इति चेत् परिह्रियतां नाम तदर्थं, परमवाच्यावयवगोपन निमित्तं तु धर्त्तव्यमेव।" प्रवचनपरीक्षा / १/२/३१ / पृ.९५ । ८६. आचारांग के वृत्तिकार शीलांकाचार्य (९-१० वीं शती ई०) ने वृत्ति में अपनी ओर से ये भेद दर्शाने का प्रयत्न किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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