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________________ अ०२/प्र०५ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १२५ दिया गया है। उनमें शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीषह नग्नमुनि को ही हो सकते हैं, वस्त्रधारी को नहीं। भगवती-आराधना की 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा (४२३) की टीका में अपराजितसूरि 'उत्तराध्ययन' के परीषहसूत्रों का निर्देश करते हुए कहते हैं ___ "इदं चाचेलताप्रसाधनपरं शीतदंशमशकतृणस्पर्शपरीषहसहनवचनं परीषहसूत्रेषु। न हि सचेलं शीतादयो बाधन्ते।" (वि.टी./भ.आ./पृ.३२६)। अनुवाद-"(उत्तराध्ययन के) परीषहसूत्रों में जो शीत, दंशमशक, तृणस्पर्श आदि परीषहों के सहन करने का कथन हैं, उससे सिद्ध होता है कि साधु को अचेल (नग्न) रहने का ही उपदेश दिया गया है, क्योंकि वस्त्रधारी को शीतादि-परीषह नहीं होते।" ___आचारांग के “अदुवा तत्थ परक्कमंतो भुज्जो अचेलं तणफासा फुसन्ति, सीयफासा फुसन्ति" इत्यादि सूत्र (आचा./१/७/७ / २२०-२२१) की वृत्ति में शीलाङ्काचार्य लिखते हैं-"अचेलतया शीतादिस्पर्श सम्यगधिसहेतेति" अर्थात् अचेल (नग्न) रहने से शीतादिस्पर्श को भलीभाँति सहन किया जाता है। ( देखिए , आगे अध्याय ३ / प्रकरण १ / शीर्षक ६)। इन वचनों से भी यही प्रतिपादित होता है कि हीनसंहननधारी को भी आगम में जिनलिंग धारण करने योग्य बतलाया गया है। ३.६. आचारांग में अचेलत्व से संयम-शिष्टता की हानि अमान्य, ह्री-कुत्साभयत्याग प्रशंसित श्वेताम्बरागम स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि साधु को तीन कारणों से ही वस्त्र धारण करना चाहिए-१. ह्रीप्रत्यय से (लज्जानुभव होने के कारण), २. जुगुप्साप्रत्यय से (लोकनिन्दा के भय से) तथा ३. परीषहप्रत्यय से ( परीषह-सहन में असमर्थ होने के कारण )-"तिहिं ठाणेहिं वत्थं धारेज्जा, तं जहा-हिरिपत्तियं दुगुंछापत्तियं परीसहपत्तियं।" (स्था.सू./३/३/३४७ / १५०)। जिनभद्रगणी जी का कथन है कि "जो जिनकल्प के अयोग्य होते हैं उनमें ये तीनों कारण अवश्य होते हैं (और पंचमकाल में सभी जिनकल्प के अयोग्य हैं) अतः उन्हें वस्त्र अवश्य धारण करना चाहिए। भले ही कुत्सा (जुगुप्सा = लोकनिन्दा)८३ और परीषह से बचने के लिए धारण न किये जायँ, पर ही अर्थात् लज्जा, जो कि संयम है, उसके पालन के लिए अवश्य धारण किये जायें। अन्यथा शीतादि से बचने ८३. "जुगुप्सा लोकविहिता निन्दा।" हेम.वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा.२५५३-५७। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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