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________________ १२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०५ थे तथा भविष्य में भी अचेल ही होंगे। जैसे मेरु आदि पर्वतों पर विराजमान जिनप्रतिमाएँ अचेल हैं और तीर्थंकरों के मार्ग के अनुयायी गणधर अचेल होते हैं, वैसे ही उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं। इस प्रकार अचेलता ही मोक्ष का मार्ग सिद्ध होती है।" ___इन प्रमाणों से श्वेताम्बराचार्यों का यह कथन मनगढन्त सिद्ध होता है कि हीनसंहननधारी पुरुष तथा तीर्थंकरों के वज्रवृषभनाराच-संहननधारी शिष्य तीर्थंकरगृहीत लिंग और चर्या के अयोग्य होते हैं, इस कारण उनके लिए उक्त लिंग और चर्या के ग्रहण का निषेध किया गया है। ३.४. पञ्चमकालीन प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतों को भी नाग्न्यपरीषह तत्त्वार्थसूत्र की रचना श्वेताम्बरशास्त्रोक्त जिनकल्प के व्युच्छेद के बाद हुई है, अतः उसमें जिनकल्पियों के आचार का वर्णन नहीं हो सकता। उसमें जिनकल्प और स्थविरकल्प का उल्लेख भी नहीं है। उस पर लिखे गये तत्त्वार्थभाष्य में भी नहीं है। इसलिए उसमें वर्णित आचार न तो जिनकल्पिकों का माना जा सकता है, न स्थविरकल्पिकों का। हाँ, उसमें ऐसे मुनिधर्म का भी वर्णन है, जो केवल चतुर्थकाल में होनेवाले वज्रवृषभनाराच आदि तीन उत्तम-संहननधारियों के लिए ही संभव है, जैसे उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होना तथा उक्त श्रेणियों में संभव परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातचारित्र का आचरण करना। इन श्रेणियों से नीचे के गुणस्थानों में ग्रहण करने योग्य बतलाया गया आचार पंचमकाल के हीनसंहननधारी श्रावकों और मुनियों से भी सम्बन्धित है। श्री जिनभद्रगणी ने जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद जिन दस पदार्थों का व्युच्छेद बतलाया है, उनमें तत्त्वार्थसूत्रवर्णित संवर के उपायों में से केवल उपर्युक्त तीन प्रकार के चारित्र ही शामिल हैं, शेष दो चारित्र तथा गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषहजय का व्युच्छेद नहीं बतलाया है। इसका तात्पर्य यह है कि बाईस परीषह पंचमकाल में हीनसंहननधारी मुनियों को भी होते हैं। उनमें एक नाग्न्यपरीषह भी है, जिससे. सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार हीनसंहननधारी मुनि भी जिनलिंगधारी होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में नाग्न्य के मुख्य और उपचरित भेद नहीं किये गये हैं, तत्त्वार्थभाष्य में भी ऐसा ही है। इससे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्र-कार को वास्तविक नाग्न्य ही मान्य है, उपचरित नहीं। ३.५. हीनसंहननधारी को भी नग्न होने पर ही शीतादिपरीषह संभव जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है, तत्त्वार्थसूत्र में हीनसंहननधारी मुनि को कर्मनिर्जरा के लिए शीतादि बाईसपरीषहों पर विजय प्राप्त करने का उपदेश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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