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अ०२ / प्र० ५
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १२३
की अनिवार्यता सिद्ध होती है, जिससे यह निर्णय होता है कि हीनसंहननधारी में तीर्थंकरगृहीत अचेललिंग धारण करने की योग्यता होती है, उसके ही माध्यम से वह सप्तमगुणस्थान पर आरूढ़ हो पाता है, अतः हीनसंहननधारी केलिए जिनेन्द्र ने अचेललिंगग्रहण का निषेध नहीं, अपितु उपदेश किया है।
भगवती - आराधना के टीकाकार अपराजितसूरि तीर्थंकरगृहीत अचेललिंग को ही सभी मोक्षार्थियों के लिए ग्राह्य बतलाते हुए लिखते हैं
‘“जिनानां प्रतिबिम्बं चेदमचेललिङ्गं । ते हि मुमुक्षवो मुक्त्युपायज्ञा यद् गृहीतवन्तो लिङ्गं तदेव तदर्थिनां योग्यमित्यभिप्रायः । यो हि यदर्थी विवेकवान् नासौ तदनुपायमादत्ते, यथा घटार्थी तुरिवेमादीन् । मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात्। यच्चात्मनोऽभिप्रेतस्योपायस्तन्नियोगत उपादत्ते यथा चक्रादिकं, तथा यतिरपि अचेलताम्। तदुपायता च अचेलताया जिनाचरणादेव ज्ञानदर्शनयोरिव ।" (वि.टी./ भ.आ./गा. 'जिणपडिरूवं'/ ८४/पृ.१२० ) ।
अनुवाद - " अचेललिंग जिनदेवों का प्रतिबिम्ब है । जिनेन्द्रदेव मोक्ष के अभिलाषी थे और मोक्ष के उपाय को जानते थे। अतः उन्होंने जिस लिंग को धारण किया, वही सभी मोक्षार्थियों के योग्य है। क्योंकि जो विवेकवान् होता है, वह जिस वस्तु को चाहता है, उसे प्राप्त न करानेवाले उपाय को नहीं अपनाता । जैसे घट चाहनेवाला मनुष्य तुरी, वेमा आदि को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वे घटनिर्माण के साधन नहीं हैं ( अपितु, पटनिर्माण के साधन हैं), वैसे ही मुक्ति चाहनेवाला मुनि वस्त्र ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मुक्ति का उपाय नहीं है । किन्तु, जो स्वाभिलषित वस्तु का उपाय होता है, उसे विवेकवान् मनुष्य नियम से ग्रहण करता है, जैसे घट चाहनेवाला चक्र, दण्ड आदि को । वैसे ही मोक्षार्थी मुनि भी अचेलता को नियम से अपनाता है। और अचेलता सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के समान मुक्ति का उपाय है, यह जिनेन्द्रदेव के ही आचरण से सिद्ध है । "
अपराजितसूरि ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि तीर्थंकरमार्गानुयायी गणधरों तथा उनके शिष्यों ने तीर्थंकरगृहीत अचेललिंग को ग्रहण किया था—
"तीर्थकराचरितत्वं च गुणः । संहननबलसमग्रा मुक्तिमार्गप्रख्यापनपरा जिना: सर्व एवाचेला भूता भविष्यन्तश्च । यथा मेर्वादिपर्वतगताः प्रतिमास्तीर्थकरमार्गानुयायिनश्च गणधरा इति तेऽप्यचेलास्तच्छिष्याश्च तथैवेति सिद्धमचेलत्वम् । " (वि.टी./ भ.आ./गा. 'आचेलक्कुद्देसिय' / ४२३ / पृ.३२३) ।
अनुवाद-"तीर्थंकरों के मार्ग का अनुसरण अचेलता से ही संभव है। संहनन और बल से परिपूर्ण तथा मोक्षमार्ग का उपदेश देने में तत्पर सभी तीर्थंकर अचेल
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