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१२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०५ ३.२. अचेलकधर्म का उपदेश तीर्थंकरों के लिए नहीं
कोई भी तीर्थंकर धर्म का उपेदश तीर्थंकरों के लिए नहीं देता, क्योंकि वे स्वयंबुद्ध होते हैं। अतः भगवान् महावीर ने अचेलकधर्म का उपदेश साधारण पुरुषों के लिए ही दिया है। जिस भव में तीर्थंकरपर्याय उदय में आती है, उस भव के पूर्व तक तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध करनेवाले पुरुष भी साधारण ही होते हैं, क्योंकि वे पूर्वतीर्थंकर के उपदेश के अनुसार प्रवर्तन करके ही तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध करते हैं। तथा केवल वज्रवृषभनाराच-संहननधारियों को महावीर ने अचेलक धर्म का उपदेश दिया है, यह भी सिद्ध नहीं होता, क्योंकि पंचमकाल के हीनसंहननधारी पुरुष भी उसी उपदेश के अनुसार प्रवर्तन करके सप्तमगुणस्थान तक आत्मोन्नति कर रहे हैं। भगवान् महावीर ने अचेलकधर्म के अतिरिक्त अन्य किसी धर्म का उपदेश दिया ही नहीं है। ३.३. आस्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा के हेतु सब के लिए समान
चतुर्थकाल हो या पंचमकाल, भरतक्षेत्र हो या ऐरावत अथवा विदेह, उत्तमसंहननधारी हो या हीनसंहननधारी, तीर्थंकर हो या अतीर्थंकर, सर्वत्र-सर्वकाल सभी के कर्मों के आस्रव, बन्ध, संवर और निर्जरा के हेतु समान होते हैं। अर्थात् किसी को भी, कहीं भी, किसी भी काल में कर्मों का आस्रव होगा, तो मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से ही होगा और संवर होगा तो इनके ही अभाव से होगा। तथा इन कारणों के होने पर न तो उत्तमसंहननधारी आस्रव से बच सकता है, न हीनसंहननधारी। इसी प्रकार चौथे से सातवें गुणस्थान तक उत्तमसंहननधारी के तथा उसी भव में तीर्थंकर होनेवाले पुरुष के कर्मों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय भी उन्हीं कारणों से होता है, जिनसे हीनसंहननधारी के कर्मों का होता है। चौथे गुणस्थान में इकतालीस कर्म-प्रकृतियों का संवर वज्रवृषभनाराचसंहननवाले में भी होता है और शेष संहननवालों में भी। अप्रत्याख्यानावरणकषाय के क्षयोपशम से दस प्रकृतियों के आस्रव का
और प्रत्याख्यानावरण के क्षयोपशम से चार प्रकृतियों के आस्रव का निरोध वह पुरुष भी करता है, जो उसी भव में तीर्थंकर होनेवाला है, और वह भी जो नहीं होनेवाला है। क्षपकश्रेणी पर वज्रवृषभनाराच-संहननधारी ही आरूढ़ होते हैं। इस श्रेणी के विभिन्न गुणस्थानों में कर्मों के आस्रव और क्षय का क्रम तीर्थंकर होनेवाले मुनियों और सामान्य मुनियों में बिलकुल एक जैसा होता है। और कार्यकारण-व्यवस्था का यह नियम है कि समान कार्य की उत्पत्ति समान कारण से ही होती है। कारण के स्वरूप में अन्तर होने पर कार्य के स्वरूप में भी अन्तर होना अवश्यम्भावी है। बाह्यवेश परिग्रहात्मक और अपरिग्रहात्मक होता है, अतः उसका प्रभाव अन्तरंग परिणामों पर अनिवार्यतः पड़ता है। इस प्रकार आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, उपशम, क्षयोपशम, क्षय आदि समान कार्य के लिए समान आत्मपरिणाम और समान आत्मपरिणाम के लिए समान बाह्यलिंग
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