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________________ अ०२ / प्र०५ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १२१ अनुवाद-"जो तुमने यह समस्त उपकरणों का त्याग कर दिया है, वह उन तीर्थंकरों और जिनकल्पिकों में भी दिखायी नहीं देता, जिनके लिंग को तुमने अनुकरणीय बतलाया है। अतः यह तुम्हारा अपना ही कोई नया मार्ग है।" __नया मार्ग चलानेवाले को ही श्वेताम्बराचार्यों ने 'निह्नव' कहा है।८२ और 'बोटिक' नाम से अभिहित किये जानेवाले दिगम्बरों को उन्होंने उपर्युक्त कारण से नवीनमतप्रवर्तक कहकर श्वेताम्बर साधुओं के वेश की अपेक्षा वेश (द्रव्यलिंग) से भी भिन्न, सर्वापलापी, महामिथ्यादृष्टि बोटिकनिह्नव कहा है-"अष्टमं नगरं द्रव्यलिङ्गमात्रेणापि भिन्नानां सर्वापलापिनां महामिथ्यादृशां वक्ष्यमाणानां बोटिकनिह्नवानां लाघवार्थमुत्पत्तिस्थानमुक्तम्।" (हेम.वृत्ति/विशे. भा./गा.२३०३)। __श्री जिनभद्रगणी ने श्वेताम्बर-मान्य धर्म को ही महावीरप्रणीत धर्म मानकर दिगम्बरमत को महावीर द्वारा उपदिष्ट मत, लिंग (वेश) और चर्या से भिन्नमत, भिन्नलिंग और भिन्नचर्यावाला मिथ्यामत कहा है-"भिन्नमयलिंगचरिया मिच्छद्दिट्ठि त्ति बोडियाऽभिमया।" (विशे. भा./गा.२६२०)। हीनसंहननधारियों को भी तीर्थंकरलिंग-ग्रहण का उपदेश इसके प्रमाण तीर्थंकर अचेललिंगधारी होते हैं। अतः अचेललिंग ही तीर्थंकरलिंग या जिनलिंग है। श्री जिनभद्रगणी आदि श्वेताम्बराचार्यों ने तीर्थंकरों के शिष्यप्रशिष्यों को हीनसंहननधारी होने के कारण अचेललिंग के अयोग्य बतलाया है और इसी कारण उनके लिए तीर्थंकरलिंग निषिद्ध घोषित किया है। किन्तु यह मान्यता निम्नलिखित युक्तियों और प्रमाणों से मनगढन्त सिद्ध होती है३.१. महावीर का उपदेश पंचमकाल के जीवों के लिए भी पंचमकाल में भगवान् महावीर का तीर्थ प्रवर्तमान है, जिससे सिद्ध है कि उनका उपदेश पंचमकाल के जीवों के लिए भी है। इसीलिए जीव पंचमकाल में सप्तम गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास कर सकता है। भगवान् महावीर ने एकमात्र अचेलकधर्म का उपेदश दिया है, यह श्वेताम्बरशास्त्रों से ही प्रमाणित है। इससे साबित होता है कि पंचमकाल के हीनसंहननधारी प्रमत्त-अप्रमत्तसंयत मुनियों के लिए अचेललिंग का ही उपदेश दिया गया है, अर्थात् सर्वज्ञ ने उन्हें अचेललिंग ग्रहण करने योग्य माना है। ८२. देखिए , पादटिप्पणी ३०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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