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१२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०५ आवश्यकता रहेगी, न दीक्षा देने की। (हेम.वृत्ति / विशे.भा./गा.२५८८-८९)। इसलिए जैसे तुम्हें यह मान्य है कि तीर्थंकरों के साथ लिंग और चारित्र को छोड़कर शेष अतिशयों की अपेक्षा शिष्यों का सर्वसाधर्म्य नहीं हो सकता, अपितु किंचित् ही साधर्म्य हो सकता है, वैसे ही हमें यह मान्य है कि लिंग और चारित्र की अपेक्षा भी कुछ ही साधर्म्य होता है, सर्वसाधर्म्य नहीं। उदाहरणार्थ, लिंग की अपेक्षा भी केवल केशलोच का साधर्म्य होता है, अचेलत्व का नहीं और चारित्र की अपेक्षा एषणीय आहार के परिभोग, अनियतवास आदि की समानता होती है, पाणिपात्रभोजित्व की नहीं, क्योंकि हमलोगों में अतिशय का अभाव होने से ये धर्म हमारे योग्य नहीं हैं।" ८१
२ दिगम्बरमत को निह्नवमत ( मिथ्यामत ) सिद्ध करने की चेष्टा
उपर्युक्त दृष्टान्तों और युक्तियों से श्वेताम्बराचार्यों ने तीर्थंकर के शिष्य-प्रशिष्यों को तीर्थंकरलिंग (अचेललिंग) ग्रहण करने के अयोग्य बतलाया है और इससे यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि दिगम्बरजैन मुनि वज्रवृषभनाराच-संहनन आदि योग्यताओं से रहित पुरुषों के लिए निषिद्ध जिनलिंग (अचेललिंग) धारण करते हैं, अतः जिनाज्ञा के विरुद्ध आचरण करने से उनका मत जिनोक्तमत नहीं है, अपितु निह्नवमत अर्थात् जिनोपदेश-विपरीत स्वकल्पित मिथ्यामत है।
श्वेताम्बराचार्यों ने वस्त्रपात्रलब्धिमान् सर्वोच्च जिनकल्पिक साधु को भी मुखवस्त्रिका और ऊननिर्मित रजोहरण, इन दो उपकरणों का धारी बतलाया है और तीर्थंकरों को भी एक देवदूष्य (वस्त्र) कन्धे पर डालकर प्रव्रजित होनेवाला कहा है। किन्तु बोटिक शिवभूति जो श्वेताम्बरसाधु का वेश धारण किये हुए था, मुखवस्त्रिकादि समस्त उपकरणों का परित्याग कर नग्न हो जाता है। तब गुरु आर्यकृष्ण कहते हैं
"यदयं यस्त्वया सर्वथोपकरणत्यागः कृतः स दृष्टान्तीकृतानां तीर्थंकरजिनकल्पिकादीनामपि न दृश्यते, केवलं नूतनः कोऽपि त्वदीय एवायं मार्ग इति।" (हेम.वृत्ति/विशे.भा./ गा.२५-८४)।
८१. "यथा जिनेन्द्रैः सह 'निरुवमधिइसंघयणा चउनाणाइसयसत्तसंपण्णा' (विशे.भा./गा.२५८१)
इत्यादिना ग्रन्थेन प्रतिपादितैर्लिङ्गाच्चरिताच्च शैषैरतिशयैः सर्वसाधाऱ्या नाभिमतं भवतः, किं तर्हि? किञ्चित् साधर्म्यमेव, तथा तेनैव प्रकारेण लिङ्गेन चरितेन च किञ्चित् साधर्म्यमेव तैः सहाभिमतमस्माकं, न तु सर्वसाधर्म्यम्। तच्च साधर्म्य लिङ्गतो लोचकरणमात्रेण न पुनरचेलत्वेन, चरित्रेण त्वेषणीयाहार-परिभोगाऽनियतवासादिना, न तु पाणिभोजित्वेन, निरतिशयत्वेन तदयोग्यत्वादस्मदादीनाम्।" हेम.वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा.२५९० ।
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