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अ०२ / प्र० ५
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ११९
तुम्हारे लिए उनका उपदेश भी प्रमाण होना चाहिए। गुरु के उपदेश का उल्लंघन कर प्रवृत्ति करनेवाला शिष्य अभीष्टार्थ की सिद्धि नहीं कर सकता । परमगुरु का उपदेश यह है कि जो निरुपमधृति, प्रथम संहनन आदि अतिशयों से रहित है, उसे अचेलक नहीं होना चाहिए । इसलिए तुम इस प्रकार गुरूपदेश से अलग नाग्न्य अपनाकर अपना अहित क्यों करते हो?" ७९
शिवभूति गुरु की ही युक्ति से उत्तर देता है - " यथा गुरोरुपदेशः कर्त्तव्यस्तथा तद्वेषचरिते अप्यवश्यमाचरणीये ।" (हेम. वृत्ति / विशे. भा. / गा. २५८६ ) । अर्थात् जैसे गुरु का उपदेश पालन करने योग्य है, वैसे ही उनका वेश और चरित भी अवश्य आचरणीय हैं।
तब आर्यकृष्ण कहते हैं- "यह अनुचित है, क्योंकि गुरु का उपदेश ही कार्यसाध है। जैसे रोगी, वैद्य के उपदेश का पालन करने से ही रोगमुक्त होता है, उसके वेश और चरित का अनुकरण करने से नहीं, वैसे ही जिनवैद्य के उपदेश का पालन करनेवाला ही कर्मरोग से मुक्त होता है, उनके वेश और चरित का अनुकरण करनेवाला नहीं । जिनेन्द्रवत् योग्यता न रहते हुए भी, जो उनके वेश और चरित का अनुकरण करता है, वह उन्माद आदि का ही पात्र बनता है ।
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गुरु आर्यकृष्ण पुनः उपदेश देते हैं कि " शिष्यों की तीर्थंकरों से सभी गुणों में समानता नही हो सकती। यदि सभी गुणों में समानता हो, तो जैसे तीर्थंकर स्वयंबुद्ध होने के कारण दूसरों के उपदेश से प्रवर्तन नहीं करते, न ही छद्मस्थावस्था में दूसरों को उपदेश देते हैं, न ही शिष्यों को दीक्षा देते हैं, वैसे ही उनके शिष्य-प्रशिष्यों का भी स्वयंबुद्धत्व आदि सभी गुणों से युक्त होना आवश्यक हो जायेगा । ऐसा होने पर तीर्थ की उत्पत्ति संभव नहीं होगी, क्योंकि न तो किसी को उपदेश देने की
७९. “यदि तीर्थकरशिष्यत्वाद् तद्वेषस्तव प्रमाणं तर्हि तत एव हेतोस्तदुपदोशोऽपि भवतः प्रमाणमेव। न हि गुरूपदेशमतिक्रम्य प्रवर्तमानः शिष्योऽभीष्टार्थसाधको भवति । परमगुरूपदेशश्चैवं वर्तते-निरुपमधृतिसंहननाद्यतिशयरहितेनाचेलकेन नैव भवितव्यम् । तत् किं त्वमित्थं गुरूपदेशबाह्येन नाग्न्येनात्मानं विगोपयसीति ? " हेम वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गा.२५८५ । ८०. " इह यथा रोगी वैद्यस्योपदेशं करोति, तत्करणमात्रेणैव च रोगाद् विमुच्यते न पुनरसौ तद्वेषं करोति, नापि तच्चरितमाचरति, न च तत् कुर्वाणोऽप्यसौ प्रगुणीभवति तैनैव प्रकारेण जिन-वैद्यस्यादेशं कुर्वाणस्तद्वेषचरिते अनाचरन्नपि कर्मरोगादपैति वियुज्यते, न पुनस्तेषामादेशमकुर्वाणस्तन्नेपथ्य-चरितबिभ्राणोऽपि तस्माद् वियुज्यते, केवलं तद्योग्यता-रहितत्वान्नेपथ्यचरिताम्यां प्रवर्तमान उन्मादादिभाजनभेव भवतीति । " हेम वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य /
गा. २५८६-८७ ।
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