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________________ [छब्बीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ दिगम्बरजैनसाहित्य के महान् ग्रंथों को हेत्वाभासों एवं छलवाद के द्वारा यापनीयग्रन्थ घोषित कर दार्शनिक क्षेत्र में मिथ्या प्रचार करने और दिगम्बरजैनधर्म का अवर्णवाद करने को कौन धर्मश्रद्धाल सहन कर सकता है? प्राचीन दिगम्बर जैन आचार्यों को मनगढंत हेतुओं के द्वारा अर्वाचीन घोषित करना और दिगम्बरजैनधर्म को आचार्य कुंदकुंद के द्वारा विक्रम की छठी शताब्दी में प्रवर्तित बताना इत्यादि बातें किसी भी दिगम्बरजैन के हृदय को भारी आघात पहुँचाये बिना नहीं रह सकतीं। उपर्युक्त मिथ्यावादों एवं उनके पोषक मिथ्या हेतओं (हेत्वाभासों) का सयुक्तिक, सप्रमाण निरसन प्रो० रतनचन्द्र जी ने इस ग्रन्थ में किया है। लेखक ने अदम्य उत्साह एवं प्रकृष्ट-धर्मश्रद्धा-पूर्वक दस वर्ष के लम्बे समय तक निरंतर अथक परिश्रम इस पुस्तक के लेखन में किया है। उन्होंने दिगम्बरजैन-परम्परा की अतिप्राचीनता सिद्ध करने के लिए दिगम्बरजैन, श्वेताम्बरजैन. वैदिक. बौद्ध और संस्कत साहित्य के २८५ से अधिक ग्रंथों. अनेक शिलालेखों एवं पत्र-पत्रिकाओं का गहन अनुशीलन कर प्रभूत अकाट्य प्रमाणों का अन्वेषण किया है। ग्रन्थ के लगभग २६०० पृष्ठों के लेखन, अनेक अंशों के पुनर्लेखन, नये तथ्यों के संयोजन और अनावश्यक कथ्यों के वियोजन के अतिरिक्त कम्प्यूटरीकृत पृष्ठों के बहुशः लिपिसंशोधन में उनके द्वारा पर्याप्त श्रम किया गया है। प्रो० रतनचन्द्र जी ने इतिहास, कर्मसिद्धान्त, आचारशास्त्र, न्यायशास्त्र एवं दर्शनशास्त्र के समुद्रों में गहरे गोते लगाकर सत्य के रत्न खोज निकाले हैं, तभी दिगम्बरजैन धर्म के इतिहास और साहित्य के साथ की गयी धोखाधड़ी का पर्दाफाश करने में अत्यन्त सफल हुए हैं। इस महान् श्रम व समय-साध्य कठिन कार्य की पूर्णता दिगम्बर-जैनाचार्य पू० विद्यासागर जी महाराज एवं अनेक मुनिवरों के शुभाशीर्वाद तथा धर्मश्रद्धालु श्रावकों और विद्वज्जनों की शुभकामनाओं से ही संभव हुई है। जिस प्रकार प्रसवोपरांत सुंदरपुत्रोत्पत्ति होने पर माता का प्रसवपीडाजन्य कष्ट पुत्रजन्म की महती प्रसन्नता से दबकर विस्मृत हो जाता है, उसी प्रकार प्रोफेसर रतनचन्द्र जी के भी ग्रन्थलेखनजनित कष्ट को ग्रन्थ की पूर्णता से उत्पन्न हुए पारमार्थिक सुख ने भुला दिया है। वस्तुतः प्रोफेसर साहब ने प्रतिपक्षियों द्वारा प्रसूत अनेक कपोल-कल्पनाऔं की कपोलकल्पितता का ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर सयुक्तिक उद्घाटन कर मूल दिगम्बर, निग्रंथ धर्म की तीर्थंकरोपदिष्टता एवं परमप्राचीनता स्थापित करते हुए तथा षट्खण्डागम, कसायपाहुड आदि १८ ग्रन्थों को दिगम्बराचार्य-रचित सिद्ध करते हुए महती धर्मप्रभावना का कार्य किया है। प्रो० रतनचन्द्र जी ने इतिहास, साहित्य एवं पुरातत्त्व के प्रामाणिक आधारों से दिगम्बरजैनधर्म को अतिप्राचीन सिद्ध किया है और श्वेताम्बर-सम्प्रदाय दिगम्बरजैन-संघ से तथा यापनीयसम्प्रदाय श्वेताम्बरसंघ से टूटकर अस्तित्व में आए हैं, यह प्रतिपादित किया है। उन्होंने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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