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प्रकाशकीय
[ पच्चीस ]
विद्वान् डॉ० सागरमल जी जैन ने 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' नामक एक बड़ा ग्रन्थ लिखा, जिसमें उन्होंने उपर्युक्त ग्रन्थों में से तत्त्वार्थसूत्र और सन्मतिसूत्र को छोड़कर शेष पाँच ग्रन्थों को तथा अपनी ओर से कसायपाहुड, षट्खण्डागम आदि ११ नये दिगम्बरग्रन्थों को उनमें जोड़कर कुल सोलह ग्रन्थों को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयास किया है। तत्त्वार्थसूत्र और सन्मतिसूत्र को उन्होंने उस स्वकल्पित उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा का ग्रन्थ बतलाया है, जो उनकी कल्पनानुसार तीर्थंकर महावीर द्वारा प्रणीत थी तथा श्वेताम्बर और यापनीय संघों की मातृपरम्परा थी। इस प्रकार दिगम्बरजैनपरम्परा को उन्होंने साहित्य की दृष्टि से अत्यन्त दरिद्र ठहराने की भी चेष्टा की है।
इन ग्रन्थों को पढ़कर दिगम्बर जैन सन्तों एवं विद्वानों के हृदय व्यथित हो गये । डॉ० सागरमल जी के ग्रन्थ ने तो इस व्यथा को चरम सीमा पर पहुँचा दिया, क्योंकि उन्होंने तो दिगम्बरपरम्परा के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साहित्य के एक बहुत बड़े अंश को सर्वथा कपोलकल्पित हेतुओं एवं छलवाद के द्वारा यापनीयपरम्परा का साहित्य सिद्ध करने का कुप्रयास किया है। दिगम्बरजैनधर्म के इतिहास और साहित्य के साथ योजनाबद्ध ढँग से की गयी इस धोखाधड़ी ने इस युग के दिगम्बरजैन धर्म एवं संस्कृति के सातिशय प्रभावक, श्रुताराधक एवं श्रुताभ्यासी दिगम्बरजैनाचार्य परमपूज्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज के हृदय को अनिर्वचनीय पीड़ा से भर दिया। उनके व्याकुल नेत्र एक ऐसे स्वाध्यायशील योग्य विद्वान् की आतुरता से खोज में लग गये, जो दिगम्बर जैनधर्म के इतिहास और साहित्य के साथ की गयी इस धोखाधड़ी को सर्वमान्य, अखण्ड्य प्रमाणों और युक्तियों के प्रकाश से बेपरदा कर सके, जगजाहिर कर दे, जिससे यह सत्य प्रकट हो जाय कि दिगम्बर जैनमत तीर्थंकरोपदिष्ट है, अतएव उतना ही प्राचीन है, जितनी तीर्थंकरपरम्परा तथा जिन दिगम्बरग्रन्थों को श्वेताम्बरग्रन्थ या यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयास किया गया है, वे दिगम्बरग्रन्थ ही हैं, यापनीयग्रन्थ या श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं।
पर्याप्त खोज-बीन के पश्चात् प० पू० आचार्यश्री ने प्रो० ( डॉ०) रतनचन्द्र जी जैन, भोपाल को इस कार्य के लिए योग्य समझकर उन्हें ग्रन्थलेखन की प्रेरणा दी। इधर दिगम्बर जैन विद्वानों की प्रतिनिधि संस्था अखिल भारतवर्षीय दिगम्बरजैनशास्त्रिपरिषद् ने भी इस आशय का प्रस्ताव पारित किया और प्रो० रतनचन्द्र जी भोपाल से उक्त उद्देश्य को पूरा करनेवाला ग्रंथ लिखने का आग्रह किया । ऐसे ग्रंथ का लेखन धर्मप्रभावना का कितना महान् कार्य है, यह प्रोफेसर साहब स्वयं भी अनुभव कर रहे थे।
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