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________________ प्रकाशकीय [ सत्ताईस ] सप्रमाण सिद्ध किया है कि कषायपाहुड, षट्खण्डागम, भगवती - आराधना, मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र, सन्मतिसूत्र आदि ग्रन्थ दिगम्बर - आम्नाय के हैं, और इन ग्रंथों के यापनीय अथवा श्वेताम्बर ग्रंथ होने के पक्ष में दिए गए तर्कों का बिन्दुवार पूर्णतः निरसन किया है। प्रोफेसर रतनचन्द्र जी को जैनसाहित्य की इस अद्वितीय महान् सेवा के लिए सम्पूर्ण देश का दिगम्बरजैन समाज तो अनेक साधुवाद देगा ही, साथ ही धरती से वर्तमान साधु समाज का एवं स्वर्ग से स्वर्गस्थ प्राचीन प्रभावक आचार्य भगवन्तों का भी मंगल आशीर्वाद प्राप्त होगा, जो उन्हें भविष्य में भी जैनसाहित्य की ऐसी ही मूल्यवान् सेवा करते रहने की ऊर्जा प्रदान करेगा । लेखक ने ग्रन्थ में विषय का व्यापक प्रस्तुतीकरण कर दिगम्बरजैनसाहित्य में ग्रन्थ को अमर बना दिया है और वैसे ही इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ने इसके यशस्वी लेखक को भी अमर बना दिया है। अनादिनिधन, युक्तियुक्त, सर्वोदयी, लोककल्याणकारी दिगम्बरजैन धर्म एवं दर्शन का जैन कहलानेवाले अपनों के ही द्वारा किए गए एवं किए जा रहे अयुक्तिसंगत अवर्णवाद को देखकर जिनका श्रद्धालु कोमलहृदय उसके अहितकर परिणामों का अनुमान कर काँप गया और जो उन मिथ्या अवर्णवादों के सटीक निरसन के लिए एक उत्कृष्ट प्रामाणिक ग्रन्थ के उद्भव का सपना देख रहे थे, उन प० पू० आचार्य विद्यासागर जी महाराज को आज अपने सपने को साकार देखकर जो प्रसन्नता हो रही होगी वह अनिर्वचनीय है। स्व० पं० दरबारीलाल जी कोठिया के शब्दों में पू० आचार्यश्री पायी जानेवाली दिगम्बरजैनशासन की प्रभावना की व्यग्रतापूर्ण उत्सुकता उनमें सातिशय प्रभावक पूर्वाचार्य स्वामी समन्तभद्र एवं स्वामी अकलंकदेव की छवि के दर्शन कराती है। उन्हीं वीतरागी संत के शुभाशीर्वाद से जैनसाहित्य की सेवा के लिए जन्मी संस्था श्री 'सर्वोदय जैन विद्यापीठ' इस महान् ग्रन्थ के प्रकाशन का सौभाग्य प्राप्त कर अत्यधिक हर्ष का अनुभव कर रही है। आशा है जैनाजैन सुधी पाठकगण ग्रन्थ में वर्णित ऐतिहासिक एवं सैद्धान्तिक तथ्यों के आधार पर दिगम्बरजैनधर्म के प्राचीन व प्रामाणिक स्वरूप और उसके लोककल्याणकारी समीचीन पक्ष का परिचय प्राप्त कर अपनी धारणाओं को सम्यक् बनायेंगे तथा संतुष्ट होंगे । लुहाड़िया सदन, जयपुर रोड मदनगंज- किशनगढ़, (अजमेर) राजस्थान Jain Education International मूलचन्द लुहाडिया निदेशक : सर्वोदय जैन विद्यापीठ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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