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________________ पञ्चम प्रकरण सामान्य पुरुषों के लिए तीर्थंकरलिंग-निषेध मनगढन्त १ पंचमकाल में सचेललिंग को ही जिनोक्त, उचित और अनिवार्य ठहराने का प्रयास प्रस्तुत अध्याय के तृतीय प्रकरण (शीर्षक ३.९) में स्पष्ट किया गया है श्वेताम्बराचार्यों ने अवास्तविक अचेलत्व और वास्तविक अचेलत्व को 'जिनकल्प' संज्ञा देकर तथा उसका व्युच्छेद घोषित कर दिगम्बरमत को निह्नवमत (तीर्थंकरोपदेश के विपरीत कल्पित मिथ्यामत) तथा श्वेताम्बरमत को तीर्थंकरप्रणीत मत सिद्ध करने की चेष्टा की है। यह चेष्टा उन्होंने सामान्यपुरुषों के लिए तीर्थंकरलिंग-ग्रहण के निषेध की कल्पना द्वारा भी की है। उन्होंने बोटिककथा के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि 'पंचमकाल में मुनियों के लिए श्वेताम्बरमतोक्त सचेललिंग ही भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट है, उसे ही ग्रहण करने से संयम की विराधना टलती है। पंचम - काल में वज्रवृषभनाराचसंहननधारी मनुष्यों का अभाव हो जाने से अचेललिंग धारण करना संभव नहीं है, अतः सभी मुनियों को सचेललिंग ग्रहण करना अनिवार्य है।' दिगम्बरमत के विषय में (जिसे वे बोटिकमत कहते थे), उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि चूँकि पंचमकालीन पुरुषों में अचेललिंग धारण करने की योग्यता नहीं होती, अतः वह उनके लिए निषिद्ध है। इसलिए उसे धारण करने योग्य माननेवाला दिगम्बरमत जिनोक्त नहीं है, अपितु निह्नवमत अर्थात् स्वकल्पित मियामत है। श्वेताम्बराचार्यों के इन प्रयासों की सूचना बोटिककथा के गुरुशिष्य - संवाद से प्राप्त होती है। बोटिक शिवभूति जिनलिंगवत् सर्वथा अचेलत्व (नग्नवेश) को जिनकल्प मानता है और गुरु के समक्ष उसे ही ग्राह्य ठहराता है। इसके उत्तर में गुरु आर्यकृष्ण कहते हैं कि " जिनकल्प वही धारण कर सकता है, जो वज्रवृषभनाराचसंहननधारी तथा कम से कम नवपूर्वधर हो । जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् अर्थात् पंचमकाल का आरंभ होते ही मनुष्यों में इन योग्यताओं का अभाव हो गया, अतः वर्तमान में जिनकल्प की प्रवृत्ति विच्छिन्न हो गयी है।”७५ ७४. देखिए, इसी अध्याय का प्रकरण ३ / शीर्षक ३.९ । ७५. उवएसो पुण एवं जिणकप्पो संपयं समुच्छिन्नो । जेणं सो नवपुव्वी पडिवज्जइ पढमसंघयणी ॥ १ / २ / १४ ॥ प्रवचनपरीक्षा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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