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________________ अ० २ / प्र० ४ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ११५ का विकल्प नहीं था, जो यापनीयों को वैकल्पिकरूप से मान्य था। इस प्रकार उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ का स्वरूप लिंग-विकल्प से परिपूर्ण होने के कारण श्वेताम्बर और यापनीय दोनों के लिए अत्यन्त अनुकूल था, उसके विभाजन योग्य कोई हेतु उसमें मौजूद नहीं था। अतः उसके श्वेताम्बर और यापनीय संघों के रूप में विभाजित होने की मान्यता सर्वथा अयुक्तिसंगत है। ३. पूर्व (प्रकरण ३/शी.४) में दर्शाया गया है कि अशोक के ईसापूर्व २४२ के दिल्ली (टोपरा) के सातवें स्तम्भलेख में तथा ईसापूर्व छठी शती के बुद्धवचनसंग्रहरूप त्रिपिटकसाहित्य के अंगुत्तरनिकाय नामक ग्रन्थ में और प्रथम शती ई० के बौद्धग्रन्थ दिव्यावदान में निर्ग्रन्थ शब्द से दिगम्बरजैन साधुओं का कथन किया गया है। (देखिये, अध्याय ४/ प्र.२ / शी.१.१ एवं १४)। इसी प्रकार अशोककालीन अथवा ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के बौद्धग्रन्थ अपदान में सेतवत्थ (श्वेतवस्त्र = श्वेतपट) नाम से श्वेताम्बर साधुओं की चर्चा की गयी है। (देखिये, अध्याय ४/प्र.२/शी.१.२)। इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर संघों का उदय ईसापूर्वकाल में ही हो चुका था, अतः पाँचवीं शताब्दी ई० में उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से श्वेताम्बर और यापनीय संघों के जन्म की कथा कपोलकल्पित है। ४. डॉ० सागरमल जी ने यापनीयों को भगवान् महावीर की परम्परा का सही रूप में प्रतिनिधित्व करनेवाला कहा है। (जै.ध.या.स./ लेखकीय / पृ.V)। यदि उक्त सचेलाचेल-परम्परा भगवान् महावीर द्वारा प्रणीत और यापनीयों की मातृपरम्परा होती, तो यापनीय जिन-कल्पिक साधु वस्त्रपात्रलब्धिरहित श्वेताम्बर जिनकल्पिकों के ही समान मुखवस्त्रिका, रजोहरण, एक, दो या तीन चादर तथा भिक्षापात्र ग्रहण करते, दिगम्बर मुनियों के समान सर्वथा अचेल, पाणितलभोजी और मयूरपिच्छधारी न होते। ५. श्वेताम्बर और यापनीय संघों की उत्पत्ति एक ही समय (वीर नि० सं० ६०९ या विक्रम सं० १३९ अथवा १३६) में हुई थी, इसका उल्लेख किसी भी प्राचीन ग्रन्थ या शिलालेख में नहीं मिलता। आवश्यकमूलभाष्य में वीर नि० सं० ६०९ अर्थात् वि० सं० १३९ (ई० सन् ८२) में श्वेताम्बरसंघ से बोटिकमत (दिगम्बरमत) की उत्पत्ति बतलायी गयी है, उसे डॉ० सागरमल जी ने यापनीयसंघ की उत्पत्ति मान लिया है। तथा दिगम्बरग्रन्थ 'दर्शनसार' में विक्रम सं० १३६ (वीर नि० ६०६ = ई० सन् ७९) में दिगम्बरमुनि भद्रबाहु (तृतीय) के प्रशिष्य तथा शान्त्याचार्य के शिष्य जिनचन्द्र के द्वारा श्वेताम्बरसंघ का प्रवर्तन बतलाया गया है। इस उल्लेख से डॉ० सागरमल जी ने यापनीयसंघ और श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति को समकालीन मान लिया है,७२ जो ७२. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ.१७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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