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________________ ११४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०४ और सचेल दोनों लिंगों में से किसी भी लिंग को अपनाने का विकल्प था। जो अचेललिंग धारण करने में असमर्थ थे, उनके लिए सेचललिंग धारण करने की स्वतंत्रता थी, वे अचेललिंग ग्रहण करने के लिए बाध्य नहीं थे। सचेललिंग को लेकर संघविभाजन तभी हो सकता था, जब उक्तसंघ में अचेललिंग ही अनिवार्य होता, किन्तु ऐसा नहीं था। इसी प्रकार अचेललिंग को लेकर भी किसी को अलग होने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि उसे भी अपनाने की स्वतंत्रता उक्त सचेलाचेल निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय देता था। हाँ, यदि कोई साधुवर्ग संघ से अचेललिंग का सर्वथा बहिष्कार कराना चाहता और उसमें सफल न होता. तो वह संघ से अलग हो सकता था, और अपने को श्वेताम्बरसंघ नाम से प्रसिद्ध कर सकता था। इसी प्रकार यदि कोई साधुसमूह संघ से सचेललिंग का सर्वथा बहिष्कार कराने का इच्छुक होता और उसकी बात स्वीकार न की जाती, तब उसका भी संघ से पृथक् होना संभव था, यद्यपि यह परम्परागत दिगम्बरमत को स्वीकार करना होता, किसी नये सम्प्रदाय की उत्पत्ति नहीं। किन्तु कोई साधुवर्ग उक्त संघ में अचेल और सचेल दोनों लिंगों को वैकल्पिकरूप से स्वीकार कराना चाहता और उसमें सफल न होने पर संघ से पृथक् होकर यापीनयसंघ बना लेता, इसकी संभावना रंचमात्र भी नहीं थी, क्योंकि संघ में दोनों लिंगों की वैकल्पिकरूप से स्वीकृति पहले से ही थी। अतः दोनों लिंगों को वैकल्पिकरूप से स्वीकार करनेवाले यापनीयसंघ की उत्पत्ति के योग्य परिस्थिति का उक्त संघ में सर्वथा अभाव था। अतः उसकी उत्पत्ति के योग्य परिस्थिति के अभाव से उसके साथ जो श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति मानी गयी है, उसकी उत्पत्ति के योग्य परिस्थिति का भी अभाव सिद्ध होता है। यह इस बात का प्रमाण है कि उत्तरभारतीय सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन की घटना काल्पनिक है। विभाजन और विघटन न होने से उक्त संघ सचेलाचेल-निर्गन्थसंघ अथवा उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थसंघ के नाम से ईसा की पाँचवीं शती में भी मौजूद रहता। किन्तु पाँचवी शती ई० या उसके पूर्व या पश्चात् के अंभिलेखों या साहित्य में उसका नामोनिशाँ भी नहीं है, केवल श्वेतपटमहाश्रमणसंघ, निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ, यापनीयसंघ एवं कूर्चकसंघ के नाम मिलते हैं। इससे भी सिद्ध है कि 'उत्तरभारतीय-निर्ग्रन्थसंघ' या 'सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ' नाम के किसी संघ का भारत में कभी अस्तित्व ही नहीं था, वह कपोलकल्पित है। श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति दिगम्बर (निर्ग्रन्थ) संघ से ही हो सकती थी, क्योंकि उसमें ही अचेललिंग अनिवार्य था, जो असमर्थ पुरुषों के लिए संभव नहीं था। और यापनीयसंघ का उद्भव श्वेताम्बरसंघ से ही संभव था, क्योंकि उसमें ही अचेललिंग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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