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________________ अ०२/प्र०४ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / ११३ में वैसी ही अनेक गाथाएँ मिलती हैं, जैसी श्वेताम्बर ग्रन्थों में है, अतः उत्तरभारत की जिस सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा से ये समान गाथाएँ श्वेताम्बर ग्रन्थों में आयी हैं, उसी परम्परा से इन ग्रन्थों में आयी हैं। और उस परम्परा के उत्तराधिकारी श्वेताम्बरों के अलावा यापनीय ही थे, अतः षट्खण्डागम आदि ग्रन्थ यापनीय-परम्परा के हैं। अथवा यदि वे यापनीयसंघ की उत्पत्ति के पूर्व रचे गये हैं, तो उत्तरभारतीय सचेलाचेलपरम्परा के आचार्यों की कृतियाँ हैं। इस प्रकार उपर्युक्त कपोलकल्पनाओं के द्वारा मान्य विद्वान् ने षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों के दिगम्बरग्रन्थ होने की सत्यता का अपलाप करने के लिए महामायाजाल बिछाया है। मान्य विद्वान् के निम्नलिखित वचनों से उनके इस महामायाजाल के प्रसार और उसके प्रयोजनों का पता चलता है १. "यह सत्य है कि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही उत्तरभारत की निर्ग्रन्थपरम्परा के समानरूप से उत्तराधिकारी रहे हैं और इसीलिए दोनों की आगमिक परम्परा एक ही है तथा यही उनके आगमिक ग्रन्थों की निकटता का कारण है। षट्खण्डागम में स्त्रीमुक्ति का समर्थन और श्वेताम्बर आगमिक और नियुक्ति साहित्य से उसकी शैली और विषय-वस्तुगत समानता यही सिद्ध करती है कि वह यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१०४)। २. "यापनीय और श्वेताम्बर दोनों ही इस अविभक्त संघ में ( ईसा की दूसरी शती तक) निर्मित आगमिक साहित्य के समानरूप से उत्तराधिकारी बने।" (जै.ध.या.स./ पृ.६५)। ३. "कसायपाहुड उत्तरभारत की अविभक्त निर्ग्रन्थपरम्परा का ग्रन्थ है, जो श्वेताम्बरों और यापनीयों को समानरूप से उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ है" (जै.ध. या.स./ पृ.८९)। कपोलकल्पितता के प्रमाण किन्तु यह कल्पना-चक्र निम्नलिखित कारणों से कपोलकल्पित सिद्ध हो जाता है १.. उत्तरभारत की उक्त सचेलाचेल-मूलनिर्ग्रन्थ-परम्परा का अस्तित्व ही नहीं था, यह तृतीय प्रकरण में सिद्ध किया जा चुका है। अतः उससे श्वेताम्बरों और यापनीयों की उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। २. यदि उक्त परम्परा का अस्तित्व होता भी, तो उसका श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों में के रूप एकसाथ विभाजन कदापि संभव नहीं था, क्योंकि उसमें अचेल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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