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___चतुर्थ प्रकरण सचेलाचेल-संघ से श्वेताम्बर-यापनीयों के
उद्भव की मान्यता कपोलकल्पित अपने पूर्व ग्रन्थ 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में डॉ० सागरमल जी ने उत्तरभारत में भगवान्-महावीर-प्रणीत सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-संघ के अस्तित्व की कल्पना कर, एक दूसरी कल्पना यह की है कि श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का उद्भव इसी संघ से हुआ था। यह सचेलाचेल-संघ इन दोनों सम्प्रदायों का पर्वज था। डॉक्टर सा० लिखते हैं-"यापनीयों की उत्पत्ति श्वेताम्बर-परम्परा से न होकर उस मूलधारा से हुई है, जो श्वेताम्बरों की भी पूर्वज थी, जिससे कालक्रम से वर्तमान श्वेताम्बरधारा का विकास हुआ है। वस्तुतः महावीर के धर्मसंघ में जब वस्त्रपात्र आदि में वृद्धि होने लगी और अचेलत्व की प्रतिष्ठा क्षीण होने लगी, तब उससे अचेलता के पक्षधर यापनीय और सचेलता के पक्षधर श्वेताम्बर ऐसी दो धारायें निकलीं।" (जै.ध.या.स./ पृ.२३-२४)। इस प्रकार डॉक्टर सा० के अभिप्रायानुसार उत्तरभारत की सचेलाचेल मूल निर्ग्रन्थपरम्परा, जिसे उन्होंने अन्यत्र अविभक्त परम्परा नाम भी दिया है, श्वेताम्बरों और यापनीयों की पूर्वजपरम्परा अर्थात् मातृपरम्परा थी।
इस कल्पना के द्वारा उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि उत्तरभारत में जो मूल निर्ग्रन्थसंघ का विभाजन हुआ था, उससे दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों का जन्म नहीं हुआ था, अपितु श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों की उत्पत्ति हुई थी। उनका कथन है कि दिगम्बरसम्प्रदाय की स्थापना तो स्वतन्त्ररूप से दक्षिणभारत में विक्रम की छठी शताब्दी में आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा की गई थी। अतः यह सम्प्रदाय भगवान् महावीर की परम्परा का उत्तराधिकारी नहीं है। उनकी परम्परा के उत्तराधिकारी तो केवल श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय हैं।
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उक्त कपोलकल्पना का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन मान्य विद्वान् ने उत्तरभारत में सचेलाचेलपरम्परा के अस्तित्व की कल्पना कर तथा उससे श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों के उदय की कथा गढ़कर एक अन्य कथा यह गढ़ी है कि उक्त सचेलाचेल-मूल-परम्परा के जो आगम, सिद्धान्त, गाथाएँ आदि थीं, वे श्वेताम्बरों और यापनीयों को समानरूप से उत्तराधिकार में मिली हैं। इस दूसरी कल्पना के द्वारा उन्होंने इस तीसरी कल्पना को तर्कसंगत बनाने की कोशिश की है, कि यतः षट्खण्डागम, कसायपाहुड, भगवती-आराधना, मूलाचार आदि ग्रन्थों
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