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________________ अ० २ / प्र० ३ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १११ यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है। डॉ० सागरमल जी ने १९९६ ई० में लिखित अपने 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ में पहले बोटिकमत के नाम से यापनीयमत की उत्पत्ति वीरनिर्वाण सं० ६०९ ( डॉक्टर सा० के अनुसार ई० सन् १४२ ) में मानी थी । (देखिये, इसी अध्याय की पा. टि. ६१ ) । किन्तु, बाद में इस मत को निरस्तकर उसकी उत्पत्ति ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ में मान ली । (देखिये, इसी अध्याय का प्र. ३/शी.१)। अब आठ वर्षों बाद ई० सन् २००४ में लिखे गये अपने नये ग्रन्थ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा में पुनः वीरनिर्वाण सं० ६०९ ( ई० सन् ८२, डॉक्टर सा० के अनुसार ई० सन् १४२ ) में बोटिकमत के नाम से यापनीयमत का उदय मान लिया है। यह उनकी अनिश्चयात्मक मनोदशा का अन्यतम उदाहरण है। " किन्तु यह पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है कि बोटिकमत यापनीयमत नहीं था, अपितु दिगम्बरमत को बोटिकमत कहा गया है, अतः यापनीयमत की उत्पत्ति वीरनिर्वाण सं० ६०९ ( ई० सन् ८२) में मानना अप्रामाणिक है। डॉक्टर सा० ने भी प्रमाण के अभाव में ही इस मत को निरस्त किया था और 'पाँचवीं शती ई० के पूर्व किसी भी अभिलेख या ग्रन्थ में यापनीय - सम्प्रदाय का उल्लेख नहीं मिलता' इस बलिष्ठ ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर उन्होंने यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ में स्वीकार की थी। यही मत प्रमाणसिद्ध होने से समीचीन है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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