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________________ ११० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२ / प्र० ३ "दक्षिण का अचेल -निर्ग्रन्थसंघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर का सचेल-निर्ग्रन्थ-संघ स्थूलभद्र की परम्परा से विकसित हुआ ।” (पृ.२८-२९)। " ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छह सौ नौ वर्ष पश्चात् उत्तमभारत के निर्ग्रन्थसंघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित हुई, फलतः उत्तरभारत का निर्ग्रन्थ-संघ सचेल एवं अचेल ऐसे दो भागों में बँट गया । पाश्र्वपत्यों (भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायियों) के प्रभाव से आपवादिकरूप में एवं शीतादि के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपधि बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर आर्यकृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया। आर्यकृष्ण जिनकल्प का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्रपात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने लगे, जब कि आर्य शिवभूति ने इनके त्याग और जिनकल्प के आचरण पर बल दिया। आर्य शिवभूति की उत्तरभारत की इस अचेलपरम्परा को श्वेताम्बरों ने बोटिक ( भ्रष्ट ) कहा, किन्तु आगे चलकर यह परम्परा यापनीय के नाम से प्रसिद्ध हुई।" (पृ.२९-३०)। --- इस वक्तव्य में डॉक्टर सा० ने माना है कि भगवान् महावीर का निर्ग्रन्थसंघ अचेल था। उस संघ का एक श्रमणसमुदाय धर्मप्रचारार्थ दक्षिण भारत चला गया, जो आगे चलकर दिगम्बरसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा उत्तरभारत में स्थित रहे श्रमणसममुदाय ने शीतल जलवायु की दुस्सहता के कारण एक वस्त्र धारण करना शुरू कर दिया । फिर धीरे-धीरे उसके वस्त्रपात्रादि- परिग्रह में वृद्धि हो गयी, जिसके फलस्वरूप ईसा की द्वितीय शताब्दी में उससे अचेलता-समर्थक यापनीयसम्प्रदाय उत्पन्न हुआ। इससे स्पष्ट है कि डॉक्टर सा० ने अपनी इस पूर्व मान्यता का परित्याग कर दिया है कि भगवान् महावीर का निर्ग्रन्थसंघ सचेलाचेल था और उससे सचेलता के समर्थक श्वेताम्बरसम्प्रदाय का एवं अचेलता के समर्थक यापनीयसम्प्रदाय का उद्भव हुआ था तथा दिगम्बरसम्प्रदाय की स्थापना विक्रम की छठी शती में दक्षिणभारत में आचार्य कुन्दकुन्द ने की थी। डॉक्टर सा० ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि भगवान् महावीर के अचेल निर्ग्रन्थसंघ से एक वस्त्र स्वीकार कर लेनेवाले सचेल-निर्ग्रन्थसंघ का जन्म हुआ। यह सचेल-निर्ग्रन्थसंघ श्वेताम्बरसंघ ही था, क्योंकि यह अचेलत्व को अस्वीकार कर एकमात्र सचेललिंग से मोक्ष की प्राप्ति मानने लगा था। तथा इस सचेल-निर्ग्रन्थसंघ अर्थात् श्वेताम्बरसंघ के विभाजन से यापनीयसंघ का उद्भव हुआ और दिगम्बरसंघ उस अचेल - निर्ग्रन्थसंघ का उत्तराधिकारी या नामान्तर है, जो महावीर के निर्वाण के दो-तीन सौ वर्ष बाद ही तमिलप्रदेश में पहुँच गया था । इस प्रकार डॉक्टर सा० ने सचेल श्वेताम्बरसंघ से अचेल दिगम्बरसंघ की प्राचीनता भी स्वीकार की है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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