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________________ अ० २ / प्र० ३ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १०९ ५ डॉक्टर सा० के मत में परिवर्तन महावीर के निर्ग्रन्थसंघ का सर्वथा अचेल होना मान्य अचेल निर्ग्रन्थसंघ से सचेल श्वेताम्बरसंघ का उद्भव मान्य श्वेताम्बरसंघ से यापनीयसंघ की उत्पत्ति स्वीकार्य उपर्युक्त तथ्यों पर ध्यान जाने के कारण ही 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के प्रकाशन (सन् १९९६ ई०) के आंठ वर्षों बाद डॉ० सागरमल जी को उत्तरभारत में सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा के अस्तित्व की स्वमान्यता का परित्याग कर यह स्वीकार करना पड़ा है कि तीर्थंकर महावीर का निर्ग्रन्थसंघ सर्वथा अचेल था । सन् २००४ ई० में प्रकाशित अपने नये लघुग्रन्थ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा में वे लिखते हैं " तमिलनाडु में लगभग ई० पू० प्रथम - द्वितीय शती से ब्राह्मीलिपि में अनेक जैन अभिलेख मिलते हैं, जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि निर्ग्रन्थसंघ महावीर के निर्वाण के लगभग दो-तीन सौ वर्ष पश्चात् ही तमिल प्रदेश में पहुँच चुका था। --- आज भी तमिल जैनों की विपुल संख्या है और वे भारत में जैनधर्म के अनुयायियों की प्राचीनतम परम्परा के प्रतिनिधि हैं। ये नयनार एवं पंचमवर्णी के रूप में जाने जाते हैं।'' (पृ. २५-२६)। " दक्षिण में गया निर्ग्रन्थसंघ अपने साथ विपुल प्राकृत जैनसाहित्य तो नहीं ले जा सका, क्योंकि उस काल तक जैनसाहित्य के अनेक ग्रन्थों की रचना ही नहीं हो पायी थी। वह अपने साथ श्रुतपरम्परा से कुछ दार्शनिक विचारों एवं महावीर के कठोर आचारमार्ग को ही लेकर चला था, जिसे उसने बहुत काल तक सुरक्षित रखा। आज की दिगम्बरपरम्परा का पूर्वज यही दक्षिणी अचेल निर्ग्रन्थसंघ है।" (पृ.२६)। "दक्षिण की जलवायु उत्तर की अपेक्षा गर्म थी, अतः अचेलता के परिपालन में दक्षिण में गये निर्ग्रन्थसंघ को कोई कठिनाई नहीं हुई, जब कि उत्तर के निर्ग्रन्थसंघ में कुछ पावपत्यों के प्रभाव से और कुछ अतिशीतल जलवायु के कारण यह अचेलता अक्षुण्ण नहीं रह सकी और एक वस्त्र रखा जाने लगा ।" (पृ.२६) । Jain Education International "यह मान्यता समुचित ही है कि भद्रबाहु की परम्परा से ही आगे चलकर दक्षिण की अचेलक-निर्ग्रन्थ-परम्परा का विकास हुआ।" (पृ. २८)। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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