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________________ १०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०३ में से साधक को अपनी शक्ति के अनुसार किसी भी लिंग को स्वीकार करने की स्वतंत्रता थी। कोई भी मुनि शक्ति या इच्छा के अभाव में अचेललिंग ग्रहण करने के लिए बाध्य नहीं था। अतः किसी को भी सचेललिंग का आग्रहकर संघ से अलग होने की आवश्यकता नहीं थी। और यापनीयों की मान्यता के अनुसार उसमें दोनों लिंगों का विधान था ही, अतः उन्हें भी अलग सम्प्रदाय बनाने की जरूरत नहीं थी। इस तरह विभाजन की कारणसामग्री का सद्भाव ही उक्त संघ में नहीं था। फलस्वरूप उसका विभाजन और उससे श्वेताम्बर-यापनीय सम्प्रदायों की उत्पत्ति मानना अयुक्तिसंगत है। जब उक्त संघ का विभाजन ही असंभव था, तब वह कहाँ चला गया? वर्तमान में दिखायी क्यों नहीं देता? स्पष्ट है कि उसका अस्तित्व ही नहीं था, वह कपोलकल्पित है। ५. जब भी किसी पूर्व संघ से नया संघ जन्म लेता है, तब नये संघ का ही नया नामकरण होता है, पूर्व संघ का नहीं, क्योंकि उसके सिद्धान्त पूर्ववत् ही रहते हैं, अतः उसका नाम भी यथावत् रहता है। इसी कारण उसकी मौलिकता और प्राचीनता कायम रहती है। जैसे भारत से पाकिस्तान अलग हुआ, तो पाकिस्तान का ही 'पाकिस्तान' यह नया नाम रखा गया, भारत का 'भारत' नाम ज्यों का त्यों रहा आया, जैसे निर्ग्रन्थसंघ (वर्तमान नाम 'दिगम्बरजैनसंघ') से श्वेताम्बरसंघ का उद्भव हुआ, तो श्वेताम्बरसंघ का ही 'श्वेताम्बरसंघ' यह नया नामकरण हुआ, निर्ग्रन्थसंघ 'निर्ग्रन्थसंघ' के ही नाम से श्वेताम्बरसंघ के साथ विद्यमान रहा और है, अथवा जैसे मूर्तिपूजक-श्वेताम्बरसंघ से स्थानकवासी-श्वेताम्बरसंघ का जन्म हुआ, तो मूर्तिपूजकश्वेताम्बरसंघ इसी नाम से नवोदित स्थानकवासी श्वेताम्बरसंघ के साथ वर्तमान में भी जीवित है। अतः उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ से यदि श्वेताम्बर और यापनीय संघों की उत्पत्ति हुई होती, तो उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ इसी नाम से उनके साथ विद्यमान रहता। किन्तु उनके साथ इस संघ का किसी भी अभिलेख या ग्रन्थ में नामोनिशाँ नहीं मिलता। इससे सिद्ध है इसका अस्तित्व ही नहीं था। ६. जिस काल (पाँचवीं शती ई० के प्रारंभ) में उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ का विघटन माना गया है, ठीक उसी काल में बिलकुल उसी सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के लक्षणोंवाले यापनीयसंघ का उदय हुआ था। इससे सिद्ध होता है कि उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निग्रन्थसंघ था ही नहीं, क्योंकि यदि होता, तो उसी के लक्षणोंवाले यापनीयसंघ के उदय की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार शास्त्रीय और ऐतिहासिक, इन द्विविध प्रमाणों से यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ का अस्तित्व एक वास्तविकता नहीं थी, वह डॉ० सागरमल जी द्वारा कपोलकल्पित है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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