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१०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०३ ___श्वेताम्बर सन्तों और विद्वानों के ये वचन भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि अचेलत्व का जिनकल्प-नामकरण एवं उसके विच्छेद की घोषणा उपर्युक्त प्रयोजनों की सिद्धि के लिए अभिप्रायपूर्वक की गयी है, ये जिनोक्त नहीं हैं। ३.११. अचेलत्व के आचरण का विच्छेद नहीं, परित्याग
श्री जिनभद्रगणी द्वारा जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् जिनकल्प के नाम से अचेलकधर्म के व्युच्छिन्न हो जाने की जो घोषणा की गयी है, उससे दो बातें प्रकट होती हैं। एक तो यह कि जम्बूस्वामी के निर्वाण के पूर्व अचेलकधर्म प्रवर्तमान था। दूसरी यह कि उनके निर्वाण के बाद आविर्भूत हुए श्वेताम्बरसम्प्रदाय में उसका आचरण नहीं होता था। किन्तु जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद रचित वैदिक-परम्परा के साहित्य, बौद्धसाहित्य एवं संस्कृतसाहित्य में निर्ग्रन्थों (दिगम्बरजैन मुनियों) को 'नग्न' 'अह्रीक' (लज्जाहीन) आदि शब्दों से अभिहित किया गया है। (देखिये, आगे चतुर्थ अध्याय)। दिगम्बर-पट्टावलियों में जम्बूस्वामी के निर्वाण के अनन्तर अनेक श्रुतकेवलियों, दशपूर्वधारियों आदि का उल्लेख मिलता है। तत्पश्चात् अनेक दिगम्बरजैनाचार्यों द्वारा रचित कसायपाहुड, षट्खण्डागम, समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, भगवती-आराधना, मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र, तिलोयपण्णत्ती, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। शिलालेखों में भी बहुसंख्यक दिगम्बरजैन आचार्यों और मुनियों के नाम उत्कीर्ण हैं। आज भी बहुत-से दिगम्बर जैन मुनियों का अस्तित्व प्रत्यक्ष दिखाई देता है। इससे सिद्ध होता है कि अचेलकधर्म के आचरण का विच्छेद नहीं हुआ था, अपितु श्वेताम्बरसम्प्रदाय के संस्थापक मुनियों ने कष्टकर होने से उसका परित्याग कर सुखकर सचेलधर्म का प्रचलन किया था। अचेलकधर्म की प्रवृत्ति तो दिगम्बरजैनपरम्परा में आज भी विद्यमान है। निष्कर्ष
निष्कर्ष यह कि श्रीजिनभद्रगणि-वर्णित जिनकल्प प्रथम तो अचेल था ही नहीं, दूसरे, जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद उसे व्युच्छिन्न मान लिया गया, तीसरे, अचेलत्व का जिनकल्प नाम कपोलकल्पित है, चौथे, आचारांगोक्त अचेलत्व श्वेताम्बरपरम्परा में कभी व्यवहृत नहीं हुआ और पाँचवें, आर्य महागिरि ने जिस अचेलक धर्म को अंगीकार किया था, वह दिगम्बरमुनिधर्म था। इन पाँच प्रमाणों से सिद्ध है कि यापनीयसंघ की उत्पत्ति (पंचम शताब्दी ई०) के पूर्व भारत के किसी भी कोने में ऐसी कोई भी जैनपरम्परा विद्यमान नहीं थी, जिसमें सचेलमुनिधर्म के साथ वैकल्पिक अचेलमुनिधर्म प्रचलित था। अतः डॉ० सागरमल जी का यह कथन सर्वथा कपोलकल्पित है कि उत्तरभारत में भगवान् महावीर के समय से ही सचेलाचेल निर्ग्रन्थ-परम्परा विद्यमान थी।
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