________________
अ०२ / प्र० ३
काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १०५
नाम पूरे तौर पर नहीं मिलता। इस प्रकार जम्बूस्वामी के बाद ही ये पट्टावलियाँ जुदीजुदी गिनी जाने लगीं। यदि इसका कोई कारण हो, तो वह एकमात्र यही है कि जिस समय से सर्वथा जुदे-जुदे पट्टधरों के नामों की योजना प्रारम्भ हुई, उस समय जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद, वर्धमान के साधुओं में भेद पड़ चुका था। वह पड़ा हुआ भेद धीरे-धीरे द्वेष व विरोध के रूप में परिणत होता रहा । उस समय जो स्वयं मुमुक्षु पुरुष थे, वे तो यथाशक्य उच्च त्यागाचरण सेवन करते थे, और जो पहले से ही सुखशीलता के गुलाम बन चुके थे, वे कुछ मर्यादित छूट रखकर पराकाष्ठा के त्याग की भावना रखते थे । अर्थात् जम्बूस्वामी के बाद भी उन मुमुक्षुओं में से कई एक तो भगवान् महावीर के कठिन त्यागमार्ग का ही अनुसरण करते थे और कई एक जिन्होंने परिमित छूट ली थी, वे कदाचित् अथवा निरन्तर एकाध कटिवस्त्र रखते होंगे, पात्र भी रखते होंगे तथा निरन्तर निर्जन वनों में न रहकर कभी बस्तियों में भी रहते होंगे। --- उनमें से एक पक्ष वस्त्रपात्रवाद में ही मुक्ति की प्राप्ति देखता था और दूसरा पक्ष मात्र नग्नता में ही मोक्ष मानता था । " ( जैन साहित्य में
विकार/पृ.४३)
अचेल - जिनकल्प के विच्छेद की घोषणा को एक छल निरूपित करते हुए पं० बेचरदास जी लिखते हैं
"विशेषावश्यक के इस ( जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद दस चीजों के व्युच्छिन्न होने के) उल्लेख को भाष्यकार श्री जिनभद्रसूरि ने जिनवचन अर्थात् तीर्थंकर का वचन बतलाया है और टीकाकार श्री मलधारी हेमचन्द्र ने भी मक्खी पर मक्खी मारने के समान उसी बात को दृढ़ किया है । बलिहारी है श्रद्धान्धता की । गाथा में लिखा है कि जम्बू के समय ये दस बातें विच्छिन्न हो गईं। इस प्रकार का उल्लेख तो वही कर सकता है, जो जम्बूस्वामी के बाद हुआ हो । यह बात मैं विचारक पाठकों से पूछता हूँ कि जम्बूस्वामी के बाद कौन-सा २५वाँ तीर्थंकर हुआ है, जिसका वचनरूप यह उल्लेख माना जाय? यह एक ही नहीं, किन्तु ऐसे संख्याबद्ध उल्लेख हमारे कुलगुरुओं ने पवित्र तीर्थंकरों के नाम पर चढ़ा दिये हैं, जिससे हम विवेकपूर्वक कुछ भी नहीं विचार सकते। क्या यह कुछ कम तमस्तरण है?" (जैन साहित्य में विकार / पृ.४२ / पा.टि.) ।
यहाँ पं० बेचरदास जी ने जम्बस्वामी के निर्वाण के बाद दस वस्तुओं के विच्छेद का कथन करनेवाली ‘मण - परमोहि-पुलाए' इत्यादि गाथा को 'विशेषावश्यक' का बतलाया है । किन्तु यह विशेषावश्यकभाष्यकार द्वारा रचित है, यह इसी प्रकरण के शीर्षक ३.५ में स्पष्ट कर दिया गया है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org