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१०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२ / प्र०३ ३.१०. जिनकल्प-नामकरण के प्रयोजन ही विच्छेद-घोषणा के प्रयोजन
अचेलत्व को प्रथमसंहनन से जुड़ा जिनकल्प नाम दे देने से ही जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद उसका व्युच्छेद सिद्ध हो जाता है, क्योंकि पंचमकाल में उत्तमसंहननधारी मनुष्य उत्पन्न नहीं होते। अतः अचेलत्व को जिनकल्प नाम देने के जो प्रयोजन ऊपर वर्णित किये गये हैं, वे ही जिनकल्प-विच्छेद की घोषणा के प्रयोजन थे। स्वयं श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों ने उन्हें स्वीकार किया है। सुप्रसिद्ध श्वेताम्बरमुनि श्री नगराज जी डी० लिट्० लिखते हैं
"श्वेताम्बर-आगमों में जिनकल्प तथा स्थविरकल्प के रूप में नग्न और सवस्त्र, दोनों मुनि आचार-विधियों का निरूपण है। फलतः इससे श्वेताम्बर-श्रमणआचार के साथ-साथ दिगम्बर-श्रमण-आचार को भी पुष्टि मिलती है। दिगम्बर, जिनशास्त्रों को अप्रामाणिक कहें, उन्हीं शास्त्रों से दिगम्बर-आचार का समर्थन हो, यह श्वेताम्बरों को कब स्वीकार होता? यह असम्भाव्य नहीं जान पड़ता कि कहीं इसी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप तो श्वेताम्बरों ने आर्य जम्बू के पश्चात् जिनकल्प का विच्छेद घोषित न कर दिया हो, जिससे उसका शास्त्रीय समर्थन असामयिक एवं अनुपादेय बन जाये। अन्वेषक और समीक्षक विद्वान् जानते हैं कि धर्म-सम्प्रदाय के इतिहास में ऐसी घटनाएँ अघटनीय नहीं होतीं।" (आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन । खण्ड २/ पृ. ५५८)।
पण्डित बेचरदासजी ने जिनकल्प-विच्छेद की घोषणा के रहस्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-"इससे यह बात स्पष्ट मालूम हो जाती है कि जम्बूस्वामी के बाद जिनकल्प का लोप हुआ बतलाकर अब से जिनकल्प की आचरणा को बन्द करना
और उस प्रकार आचरण करनेवालों का उत्साह या वैराग्य भंग करना, इसके सिवा इस उल्लेख में अन्य कोई उद्देश्य मुझे मालूम नहीं देता।---जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद जो जिनकल्पविच्छेद होने का वज्रलेप किया गया है और उसकी आचरणा करनेवाले को जिनाज्ञा के बाहर समझने की जो स्वार्थी एवं एकतरफी दंभी धमकी का ढिंढोरा पीटा गया है, बस इसी में श्वेताम्बरता और दिगम्बरता के विषवृक्ष की जड़ समाई हुई है। तथा इसके बीजारोपण का समय भी वही है जो जम्बूस्वामी के निर्वाण का समय है।" (जैन साहित्य में विकार/पृ.४२)। --- इस विषय को दिगम्बरों की पट्टावली भी पुष्ट करती है। श्वेताम्बरों और दिगम्बरों की पट्टावली में श्री वर्धमान, सुधर्मा तथा जम्बूस्वामी तक के नाम समान रीति से और एक ही क्रम से उल्लिखित पाये जाते हैं, परन्तु उसके बाद के आनेवाले नामों में सर्वथा भिन्नता प्रतीत होती है और वह भी इतना विशेष भिन्नत्व है कि जम्बूस्वामी के बाद उनमें से एक भी
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