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________________ अ०२/प्र०३ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १०३ कल्पना की है कि तीर्थंकरों का भी नग्न शरीर शुभप्रभामण्डल से आच्छादित रहता है तथा जिनकल्पिक साधुओं की नग्नता वस्त्रलब्धि से प्राप्त अलौकिकवस्त्र से ढंक जाती है। वस्त्रलब्धि के द्वारा नग्नत्व का आच्छादन हो जाने से लौकिकवस्त्र-परिधान की आवश्यकता नहीं होती। अतः मात्र लौकिक वस्त्र धारण न करने की अपेक्षा वस्त्रलब्धिमान् साधु को अचेल कहा गया है। इस तरह लोकानुवृत्ति आदि की श्वेताम्बरमान्यताओं को अक्षुण्ण रखते हुए श्वेताम्बर-परम्परा में भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट अचेलधर्म की स्वीकृति द्योतित करना वस्त्रलब्धिमय जिनकल्प की कल्पना का अर्थात् अवास्तविक अचेलत्व को 'जिनकल्प' संज्ञा देने का प्रयोजन था। २. दिगम्बरमत में जिनकल्प एक ऐसी उत्कृष्टचर्या का नाम है, जो वज्रवृषभनाराचसंहनन होने पर ही संभव है, किन्तु अचेलत्व के आचारण के लिए उक्त संहनन अनिवार्य नहीं है, अचेलत्व तो दिगम्बरमतोक्त हीनसंहननधारी स्थविरकल्पिक साधुओं का भी अनिवार्य धर्म है। श्वेताम्बराचार्यों ने जिनकल्प के साथ प्रथमसंहनन की अनिवार्यता को देखकर अचेलत्व को जिनकल्प नाम दे दिया, जिससे कि अचेलत्व के साथ प्रथमसंहनन की अपरिहार्यता सिद्ध हो और पंचमकाल में उसका आचरण असंभव साबित हो जाय। ३. पंचमकाल में अचेलत्व का आचरण असंभव सिद्ध हो जाने से यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि दिगम्बरपरम्परा द्वारा आचरित अचेलकधर्म तीर्थंकरोपदिष्ट नहीं है, अतः तीर्थंकर के उपदेश के विरुद्ध होने से दिगम्बरमत निह्नवमत (स्वकल्पित मिथ्यामत) है। इस प्रकार दिगम्बरमत को निह्नवमत सिद्ध करना अचेलत्व को जिनकल्प नाम देने का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन था। ४. दिगम्बरमत के निह्नवमत सिद्ध हो जाने से यह भी अपने-आप साबित हो जाता है कि एकमात्र सचेलधर्म का अनुयायी श्वेताम्बरमत ही तीर्थंकरप्रणीत है। उसे ही भगवान् ने पंचमकाल में भी आचरणीय बतलाया है। अचेलत्व को जिनकल्प नाम देकर श्वेताम्बराचार्य अन्ततः यही सिद्ध करना चाहते थे। ७०. "जिनेन्द्राणां गुह्यप्रदेशो वस्त्रेणेव शुभप्रभामण्डलेनाच्छादितो न चर्मचक्षुषां दृग्गोचरीभवति। --- अन्येषां च स्त्र्यादीनां तद्रूपदर्शनानन्तरं मोहोदयहेतुत्वाभावः ---" प्रवचनपरीक्षा/वृति/ १/२/३१/ पृ. ९२। ७१. "एवं वस्त्रानावृता अपि ये नग्ना न दृश्यन्ते ते वस्त्रविषयकलब्धिमन्तः वस्त्रजन्यकार्यविषय कलब्धिभाज इत्यर्थः। तेषां वस्त्रकार्यस्य लब्ध्यैव कृतत्वाद् वस्त्राभाव:---तत्रापि शीतादिसहनसामर्थ्यमपेक्षणीयम्।" वही / १/२/३१/पृ.९३-९४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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