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१०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०२/प्र०३ के आचार के लिये क्या लिखना चाहिए? क्या नग्नता का ही विधान किया जाय या वस्त्रपात्रता का? एक पक्ष कहता था कि नग्नता का ही विधान होना चाहिये, दूसरा पक्ष वस्त्रपात्रता के विधान की बात पर जोर दे रहा था। इस प्रकार की पारस्परिक तकरार होने पर भी दीर्घदर्शी स्कंदिलाचार्य ने और उनके बाद के उद्धारक देवर्द्धिगणी श्रमाश्रमण जी ने सूत्रों में कहीं पर भी केवल नग्नता या मात्र वस्त्रपात्रता का ही उल्लेख नहीं किया, परन्तु दोनों बातों का संघटित न्याय किया है। माथुरीवाचना के मूलनायक पुरुष और वलभीवाचना के नायक पुरुष, इन दोनों महात्माओं का मैं हृदयपूर्वक कोटिशः अभिनन्दन करता हूँ कि इन्होंने उस-उस समय के किसी तरह के वातावरण में न आकर आचारप्रधान आचारांगसूत्र में मुनियों के आचारों की संकलना करते हुए मात्र साधारणतया ही भिक्षु और भिक्षणी के आचार बतलाये हैं। उसमें कहीं पर भी जिनकल्प या स्थविरकल्प एवं श्वेताम्बर या दिगम्बर का नाम तक भी नहीं आने दिया।" (जैनसाहित्य में विकार/ पृ.४४)।
पं० बेचरदास जी के अन्तिम वाक्यों से प्रकट होता है कि आचारांगसूत्र में भिक्षु-भिक्षुणियों के आचारों की अन्तिम संकलना ई० सन् ४५४-४६६ में श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण ने वलभी में की थी। उसमें स्थविरकल्प और जिनकल्प का भेद नहीं है। इससे सिद्ध है कि श्वेताम्बर-साहित्य में उक्त दो कल्पों की कल्पना सर्वप्रथम छठी शती ई० में 'कल्पसूत्रनियुक्ति' में की गयी है। (जै.सा.इ./ पू.पी./ पृ.३८७ तथा श्र. भ.म./ पृ.२८५)। और जिनकल्प के विच्छेद की कल्पना विशेषावश्यकभाष्यकार (७वीं शती ई०) ने की है। ३.९. जिनकल्प-नामकरण के प्रयोजन
__ अब इस जिज्ञासा का समाधान आवश्यक है कि कल्पित वस्त्रलब्धि से युक्त अर्थात् अलौकिक वस्त्र से आच्छादित साधु अचेल (नग्न) नहीं होता, किन्तु लौकिक वस्त्र धारण न करने के कारण उसे अचेल कहा गया है और उसके इस अवास्तविक अचेलत्व को जिनकल्प संज्ञा दी गयी है, इसका क्या प्रयोजन था? तथा बोटिक शिवभूति द्वारा समर्थित और धारण किया गया दिगम्बरवेश वास्तविक अचेलत्व है, किन्तु चतुर्थकाल में संभव होनेवाले तपविशेष के अभाव में वह जिनकल्प नहीं कहला सकता, फिर भी जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने उसे जिनकल्प नाम दिया है, इसका भी क्या प्रयोजन था? इसके पीछे निम्नलिखित प्रयोजन थे
१. श्वेताम्बराचार्यों ने नग्नता के दृष्टिगोचर होने को लोकानुवृत्ति (लज्जारूप लोकधर्म) के विरुद्ध एवं स्त्रियों में कामोदय का हेतु माना है, इसलिए उन्होंने यह
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