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________________ अ० २ / प्र० ३ काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन / १०१ होते हैं । अभिप्राय यह कि आचारांग में अचेलत्व का उपदेश न जिनकल्पिक साधुओं के लिए है, न स्थविरकल्पिकों के लिए, अपितु वह उत्तमसंहननधारियों के लिए भी है और हीनसंहननधारियों के लिए भी । अतः सिद्ध है कि आचार्य शीलांक ने अचेलत्व को जो जिनकल्प संज्ञा दी है, वह आचारांगोक्त नहीं है, अपितु स्वकल्पित है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए अनेक विद्वानों ने अचेलत्व और सचेलत्व के आधार पर किये गये जिनकल्प और स्थविरकल्परूप भेदों को कल्पित माना है । पण्डित कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री हरिषेणकृत भद्रबाहुकथा का उल्लेख करते हुए लिखते हैं " उक्त कथा में एक उल्लेखनीय बात यह है कि उसमें जिनकल्प और स्थविरकल्प के भेद को पीछे से कल्पित बतलाया है ६९ और श्वेताम्बरीय आगमिक साहित्य के अवलोकन से भी उसका समर्थन होता है । आचारांगसूत्र में तो ये दोनों भेद हैं ही नहीं, अन्य भी प्राचीन आगमों में नहीं हैं। हाँ, 'कल्पसूत्रनिर्युक्ति' में हैं और इसलिए उसे उसी समय की उपज कहा जा सकता है।" (जै.सा. इ./ पू.पी. / पृ. ३८७) । प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० बेचरदास जी ने आचारांगादि में उक्त कल्पद्वय का उल्लेखाभाव बतलाते हुए लिखा है - " वीरनिर्वाण के बाद का यह समय देश की प्रजा के लिये बड़ा ही भीषण था । मगध देश में, जहाँ वर्धमान का साम्राज्य था, दुर्भिक्ष के बादल छा गये । वीरनिर्वाण को अभी पूरे दो सौ वर्ष भी न बीतने पाये थे कि देश में भयंकर दुर्भिक्ष शुरू हो गया। बड़ी कठिनाइयों का सामना करके देश यथा-तथा उस दुर्भिक्ष को पार कर कुछ ठीक स्थिति में आ रहा था कि इतने ही में वीर निर्वाण की पाँचवीं छठी शताब्दी में पुनः बारहवर्षीय अकाल - राक्षस ने मगध को अपने विकराल गाल में दबा लिया। यह बड़ा भयंकर अकाल था, इसमें त्यागियों का तप भी डोलायमान हो गया था, आचारों में महान् परिवर्तन हो गया था और अन्न के अभाव से दिन-प्रतिदिन स्मरण शक्ति नष्ट होने लगी थी। इससे परम्परागत जो कंठस्थ विद्या चली आ रही थी, वह विस्मृत होने लगी थी। इतना ही नहीं, किन्तु उसका विशेष हिस्सा विस्मृत हो भी चुका था। शेष बचे हुए श्रुत को किसी तरह कायम रखने की भावना से दुर्भिक्ष के अन्त में मथुरा में आर्य श्रीस्कंदिलाचार्य ने विद्यमान समस्त श्रुतधरों को एकत्रित किया। उनमें जो मताग्रही, सुखशील और नरम दल के मुनि थे, वे भी आये । परन्तु इसी में मतभेद पड़ा और वह यह कि मुनियों ६९. इष्टं न यैर्गुरोर्वाक्यं संसारार्णवतारकम् । जिन - स्थविरकल्पं च विधाय द्विविधं भुवि ॥ ६७ ॥ भद्रबाहुकथानक / बृहत्कथाकोश । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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