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________________ १०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०२/प्र०३ और इस तरह नग्न हो जानेवाले साधु के शरीर को वस्त्रलब्धिजन्य अलौकिक वस्त्र से आच्छादित भी नहीं बतलाया गया है। इससे स्पष्ट है कि आचारांग में स्वीकृत यह अचेलत्व महावीरोपदिष्ट एवं दिगम्बरमत-सम्मत है। आचारांग के वृत्तिकार आचार्य शीलांक (९-१०वीं शती ई०) ने अचेलत्व को जिनकल्पिक साधु का आचार बतलाया है, जिसका उदाहरण 'अचेल' शब्द की व्याख्या में मिलता है। वे 'अचेल' शब्द की व्याख्या स्थविरकल्पिक और जिनकल्पिक साधुओं के अभिप्राय से करते हैं। स्थविरकल्पिक साधु के अभिप्राय से 'अचेल' शब्द के 'नञ्' अव्यय को अल्पार्थ में ग्रहण कर अचेल शब्द का अर्थ 'अल्पचेल' करते हैं और जिनकल्पिक के अभिप्राय से उक्त अव्यय को निषेधार्थ में लेकर 'वस्त्ररहित' अर्थ प्रतिपादित करते हैं। यथा "अल्पार्थे नञ् , यथाऽयं पुमानज्ञः, स्वल्पज्ञान इत्यर्थः। यः साधु स्य चेलं वस्त्रमस्तीत्यचेलः, अल्पचेल इत्यर्थः। --- यदि वा जिनकल्पिकाभिप्रायेणैवैतत्सूत्रं व्याख्येयं, तद्यथा-'जे अचेले' इत्यादि, नास्य चेलं वस्त्रमस्तीत्यचेलः।" (शीलांकाचार्यवृत्ति/आचारांग /१/६/३/१८२)। आचार्य शीलांक का अचेलत्व (नग्नत्व) को जिनकल्पिक साधुओं का आचार बतलाना अर्थात् अचेलत्व को जिनकल्प नाम देना आचारांग के अभिप्राय के विरुद्ध है, क्योंकि आचारांग में कहीं भी श्रमणाचार के जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक भेद नहीं मिलते। न ही उसमें किसी को वस्त्रलब्धिसहित या वस्त्रलब्धिरहित कहा गया है, न ही यह कहा गया है कि अचेलत्व के आचरण में वही समर्थ होता है, जो वज्रवृषभनाराच-संहननधारी हो। जैसा विशेषावश्यकभाष्य में यह कहा गया है कि जो वज्रवृषभनाराचसंहननधारी नहीं होता, वह लज्जा, जुगुप्सा (लोकनिन्दाभय) और परीषहों को जीतने में सदा असमर्थ होता है, अतः उसे वस्त्र अवश्य धारण करना चाहिए (देखिये, पादटिप्पणी ८४), वैसा आचारांग में नहीं कहा गया है। उसमें तो यह कहा गया है कि जो साधु परीषह-सहन कर सकता है, किन्तु लज्जा के कारण वस्त्र त्यागने में असमर्थ है, उसे कटिवस्त्र धारण करना उचित है, किन्तु जो लज्जा, जगप्सा तथा परीषहों को सहन कर सकता है, उसे अचेल ही रहना चाहिए। (देखिये, अध्याय ३/प्रकरण १/ शीर्षक ६,७)। तात्पर्य यह कि आचारांग में एक ही साधु को शीतादिपरीषहजय में समर्थ, किन्तु लज्जाजय में असमर्थ तथा उसी को कभी शीतादिपरीषह तथा लज्जा दोनों को जीतने में समर्थ बतलाया गया है, इससे सिद्ध है कि यह कथन वज्रवृषभनाराचसंहननधारियों के विषय में नहीं है, अपितु हीनसंहननधारियों के विषय में है, क्योंकि प्रथमसंहननधारी तो लज्जा, जुगुप्सा और परीषह तीनों को जीतने में नियम से समर्थ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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